मातृछाया में 6 वर्ष तक की आयु के बच्चों का पारिवारिक माहौल में पालन-पोषण
ललित ज्वेल. उज्जैन। वहां मां तो नहीं है लेकिन मां के जैसा आंचल है,जो रोते/रूठे हुए बच्चों को झट से अपनी बाहों में समेट लेती है। जीद करते बच्चे को यह समझाती है कि ऐसा करना बुरी बात है। रोने पर समझ जाती है कि शरीर में कोई पीड़ा है। तत्काल उपचार के लिए हाथ बढ़ता है।
यहां दिनभर बच्चों की किलकारियां गूंजती है। बच्चे भगवान का रूप होते हैं,यह बात किताबों में तो पढ़ाई जाती है लेकिन जो मां अपनी किसी भी कथित मजबूरी में अपने आंचल के टुकड़े को मातृछाया के पालने में या किसी लावारिस जगह छोड़ जाती है,उसे 6 वर्ष की आयु तक संभालने का जिम्मा लेना कहीं न कहीं प्रेरणा देता है कि यह किसी संस्था की नहीं बल्कि पूरे समाज की जिम्मेदारी है।
200 बच्चों का पालन-पोषण यह संस्था कर चुकी
मक्सी मार्ग स्थित न्यू सब्जी मंडी के सामने सेवा भारती द्वारा संचालित मातृछाया का भवन है। भवन में अनाथ/निराश्रित/पालने में छोड़कर गए शून्य से 6 वर्ष तक की आयु के बच्चों का पूरे पारिवारिक माहौल में पालन-पोषण किया जाता है। संस्था फरवरी-2005 में स्थापित हुई थी।
तब से अभी तक 200 बच्चों का पालन-पोषण संस्था कर चुकी है। इन बच्चों को कानूनी तौर पर शासन की अनुमति के बाद गोद देने की प्रक्रिया भी यहां पूरी की जाती है। यहां के बच्चे विदेश में भी गोद गए हैं, जिनकी मानीटरिंग सेवा भारती के विदेश विभाग द्वारा की जाती है।
डॉ.रवि राठौर देते हैं नि:शुल्क सेवा
प्रबंधन देख रहे रत्नेश जैन के अनुसार बच्चों के डॉक्टर रवि राठौर यहां सालों से बच्चों के उपचार में नि:शुल्क परामर्श एवं सेवा देते हैं। यहां के बच्चों को कोई भी बीमारी, शारीरिक परेशानी,पीड़ा होने पर तत्काल उनसे सम्पर्क किया जाता है। वे आधी रात को भी यहां का फोन अटैंड करके तुरंत उपचार हेतु मार्गदर्शन देते हैं।
ममता के आंचल में सिमटा….
देवकला मालवीय: मातृछाया में निराश्रित बच्चों को मां का दुलार दे रही देवकला मालवीय बताती है कि उन्हे यहां 17 वर्ष हो गए। बच्चे आते ही बाई कहकर बुलाते हैं ओर चिपक जाते हैं।
कोई साड़ी का पल्लू पकड़ता है तो कोई गोद में आने की जीद करता है। कोई बताता है कि किसने शैतानी की,किसने धक्का दिया,किसने रात में बिस्तर पर सू-सू कर दी।
जब घर जाती हैं तो ये रोते हैं। नहीं जाने की जीद करते हैं। अपने जीवन में दु:ख के थपेड़े झेल चुकी देवकला बताती है कि पति की मौत के बाद दो लड़कों की भी मौत हो गई। अब यहीं मन लगता है। घर पर भी इन बच्चों की याद आती है। जब ये गोद जाते हैं तो मन टूटने लगता है। इन्हे यह नहीं पता कि मां क्या होती है? यह पता है कि एक सुरक्षित आंचल है,जहां उनका जीवन सुरक्षित है।
पूष्पा अवचिते: मातृछाया में जब बच्चे दीदी के नाम का संबोधन करते हैं तो सभी समझ जाते हैं कि पूष्पा दीदी आ गई। बच्चे टकटकी लगाए आश्रम के मुख्य द्वार की ओर देखते रहते हैं। उन्हे घड़ी देखना नहीं आती लेकिन मन की घड़ी बता देती है कि दीदी के आने का समय हो गया।
दरवाजे पर आहट सुनते ही दौड़ पड़ते हैं। कोई बाहों में झुमता है तो कोई हाथ खींचता है। सबसे छोटी बच्ची टकटकी लगाए देखती है कि अब उसे गोद में लिया जाएगा। पूष्पा के अनुसार पति की मौत हो गई, बेटी का विवाह हो गया।
अब जीवन की दिनचर्या का महत्वपूर्ण हिस्सा यही ठिकाना है। यहां आने के पहले तक जीवन में नीरसता थी। अब रोजाना मन में भाव रहता है कि जल्दी पहुंचना है आश्रम,बच्चे राह तक रहे होंगे।
रत्नेश जैन: मातृछाया का प्रबंधन देख रहे रत्नेश जैन के अनुसार इस समय शून्य से 6 वर्ष आयु के 8 बच्चे यहां है। इनमें से 7 बच्चियां और 1 बच्चा है। तीन पारियों में यहां पर दो दो आया रहती हैं। आया केवल नाम है,ये सभी मां से भी बढ़कर इन्हे दुलार देती है।
एक नर्स रितु अग्रवाल भी पदस्थ है,जो रोजाना आती है ओर बीमार बच्चों को अथवा कुपोषित बच्चों को डॉक्टर द्वारा लिखा गया उपचार निर्देशानुसार देती है।
यहां बच्चे सामान्यतया 6 बजे उठ जाते हैं। दिनचर्या अनुसार दूध/चाय/बिस्किट दिया जाता है। प्रात: 9 बजे नाश्ता दिया जाता है। दोपहर 12 बजे भोजन,शाम 4 बजे नाश्ता और 7 बजे भोजन दिया जाता है। रात्रि में दूध दिया जाता है।