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अक्षरविश्व के लिए पर्युषण पर्व पर मुनिश्री सुप्रभसागजी की कलम से’

उत्तम सत्यधर्म: वह सत्य भी सत्य नहीं है जिससे किसी के प्राण चले जायें…

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पर्युषण महापर्व में दसलक्षण पर्व की शुरुआत हो गई है। इस मौके पर अक्षरविश्व के विशेष आग्रह पर मुनिश्री सुप्रभसागर जी की लेखनी से पर्वराज पर्युषण और दसलक्षण पर्व की विशेष प्रवचन माला प्रकाशित की जा रही है….

”वाणी ऐसी बोलिए मन का आपा खोय, औरन को शीतल करें आपहु शीतल होय।’?

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जो भद्र पुरुष होते हैं वे ऐसे वचनों का प्रयोग करतें हैं, जो स्व- वर के लिए कल्याणकारी होते हैं। ऐसे वचन कभी भी नहीं बोलना चाहिए जिससे किसी के हृदय में घात हो, किसी के प्राण ही चले जायें। नि:स्वार्थ भाव से जीवन जीने वाला व्यक्ति सदा सत्य का पालन करता है, लेकिन जहां स्वार्थ होता है, वहां व्यक्ति सत्य का दिखावा करता मात्र करता है

वह वास्तव में सत्य नहीं है, वह सत्य शब्दों में तो बहुत से लोग प्राप्त कर लेते हैं लेकिन सत्य का जीवन जीने वाले विरले ही होते हैं जो तीव्र कर्म के उदय होने पर स्वयं उस सत्य को आचरण में तो पूर्ण रूप से नहीं ला पाता लेकिन जिनेन्द्र भगवान के वचनों का ही कथन करता है, उसके विपरीत कथन नहीं करता तथा जो व्यवहार में भी झूठ नहीं बोलता, वह स्वयं अणुव्रती होता है। परभावों का सर्वथ त्याग और निश्चय से निजात्मा में लीन होना सत्य व्रत है तो मन, वचन काय से असत्य नहीं बोलना, न दूसरों से बुलवाना एवं न असत्य वादियों की अनुमोदना करना ही सत्य महाव्रत है। लोक में ऐसा प्रसिद्ध है कि ‘मधुर वचन हैं औषधि कटुकवचन है तीर परमार्थ के कारण साधु न धरा शरीर।’

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 मीठे वचन जो कि मायाचारी से रहित हैं वे वास्तव इंसान के लिए औषधि का काम करते हैं वही कठोर शब्द दूसरों के हृदय में ऐसा घाव कर जाते हैं जिसका भर मुश्किल होता है इसलिए तौल-मोलकर वचनों का प्रयोग करना चाहिए। क्योंकि ज्ञानीजन पहले सोचना है फिर बोलता और वहीं एक अज्ञानी बोलने के बाद सोचता है कि अरे, मैंने ऐसा क्यों बोल दिया। पहले तौलो फिर बोलो यही ज्ञानी की पहचान है। जितने-जितने भौतिक सुख सुविधा के साधन हम प्राप्त कर रहे हैं उतने ही उतने हम सत्य से दूर हो रहे हैं। झूठ बोलना यदि पाप है तो अधिक बोलना महापाप है क्योंकि जितना हम अधिक बोलने का प्रयास करेंगे तो हमें उतना -उतना झूठ का सहारा लेना ही पड़ेगा।

इसलिए ज्ञानीजन हमेशा हित-मित निग्र्रंथ मुनिराजों के हृदय में सदा विद्यमान रहता है। उस उत्तम सत्य को एक धर्मात्मा श्रावक प्राप्त करने का सदा ही प्रयास करता है। वर्तमान व्यक्ति अनेक प्रकार की मंत्र की सिद्धि के लिए दौड़ता दिखाई देता है लेकिन जो व्यक्ति मौन का निर्दोष पालन करता है उसे वचनों की सिद्धि स्वत: ही जो जाती है और मौन व्रती के उत्तम सत्यधर्म होता ही है।

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