कब है डोल ग्यारस जानें पूजा विधि व महत्त्व

हिंदु धर्म में एकादशी अत्यंत महत्वपूर्ण होती है. एकादशी का व्रत भगवान विष्णु को समर्पित होता है. गणेश उत्सव के दौरान आने वाली एकादशी बेहद महत्वपूर्ण होती है. इस एकादशी को जलझूलनी, परिवर्तिनी एकादशी और डोल ग्यारस के नाम से भी जानते है.

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इस दिन भगवान विष्णु की पूजा और व्रत रखने से मनचाहा फल प्राप्त होता है. ये व्रत सुहागिन महिलाओं के लिए बहुत अधिक महत्व रखता है. हर वर्ष भाद्रपद महीने की शुक्ल पक्ष एकादशी तिथि को जलझूलनी एकादशी या परिवर्तिनी एकादशी आती है. इस बार 14 सितंबर को भाद्रपद महीने की शुक्ल पक्ष एकादशी तिथि को जलझूलनी एकादशी मनाई जाएगी.

शुभ मुहूर्त
पंचांग के अनुसार, भाद्रपद महीने की शुक्ल पक्ष एकादशी तिथि 13 सितम्बर दिन शुक्रवार को रात 10.30 मिनट पर शुरू होगी और 14 सितम्बर दिन शनिवार को 08.41 मिनट पर होगी. उदया तिथि के अनुसार, एकादशी का व्रत 14 सितंबर को रखा जाएगा, क्योंकि इसका प्रभाव पूरे दिन रहेगा. इस दिन सुबह 07.38 मिनट से 09.11 मिनट तक पूजा का शुभ मुहूर्त है.

परिवर्तिनी एकादशी क्यों कहते हैं. …..
एकादशी व्रत भगवान विष्णु के लिए किया जाता है. इस बार शनिवार और गणेश उत्सव के योग में एकादशी पर भगवान विष्णु, गणेश जी के साथ ही शनिदेव की पूजा का शुभ योग बन रहा है. स्कंद पुराण के वैष्णव खंड में एकादशी महात्म्य अध्याय में सालभर की सभी एकादशियों के बारे में बताया गया है. एकादशी पर विष्णु जी के लिए व्रत किया जाता है और विशेष पूजा की जाती है. अभी भगवान विष्णु के विश्राम का समय चल रहा है. पौराणिक मान्यता है कि भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी पर विष्णु जी करवट बदलते हैं, इस वजह से इस तिथि को परिवर्तिनी एकादशी कहते हैं.

एकादशी का धार्मिक महत्व
डोल ग्यारस का पावन पर्व मुख्य रूप से भगवान विष्णु की पूजा, व्रत एवं उनके अवतार भगवान श्रीकृष्ण की सूरज पूजा के लिए मनाया जाता है. मान्यता है कि भगवान श्रीकृष्ण इसी दिन पहली बार माता यशोदा और नंद बाबा के साथ नगर भ्रमण के लिए निकले थे. यही कारण है कि इस दिन कान्हा को नए वस्त्र आदि को पहना कर भव्य श्रृंगार किया जाता है. इसके बाद गाजे-बाजे के साथ भगवान श्री कृष्ण को पालकी में बिठाकर शोभा यात्रा निकाली जाती है. इस दिन भक्तगण भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन करने के बाद उनकी पालकी के नीचे से परिक्रमा लगाते है. इस पावन पर्व को जलझूनी एकादशी भी कहते हैं और इस दिन विधि-विधान से व्रत रखते हुए भगवान विष्णु के वामन अवतार की पूजा की जाती है. मान्यता है कि इसी दिन भगवान विष्णु करवट बदलते हैं, इसीलिए इसे परिवर्तनी एकादशी भी कहते हैं.

पूजा विधि-
एकादशी का व्रत दशमी तिथि से ही आरंभ हो जाता है, अत: ब्रह्मचर्य का पालन करें।

जलझूलनी एकादशी के दिन सुबह स्नानादि और दैनिक कार्यों से निवृत्त होकर स्वच्छ वस्त्र धारण करें।

इसी दिन डोल ग्यारस होने के कारण भगवान विष्णु एवं बालरूप श्री कृष्ण की पूजा करना चाहिए।

स्नान करने के बाद एकादशी व्रत का संकल्प लें।

परिवर्तिनी एकादशी की पूजा आरंभ करें।

भगवान श्री विष्णु तथा कान्हा को पंचामृत, गंगाजल से स्नान करवा कर कुमकुम लगाएं।

श्रीहरि अर्थात् कमलनयन भगवान का कमल के पुष्प से पूजन करें।

फिर पीली वस्तुओं से पूजन करें।

पूजन करते समय पीले पुष्प, तुलसी, मौसमी फल और तिल का उपयोग अवश्य करें।

एकादशी तथा वामन अवतार की कथा सुनें अथवा पढ़ें।

धूप-दीप जलाकर आरती करें।

भगवान विष्णु तथा कान्हा की स्तुति करें।

इस दिन विष्णु के अवतार वामन देव का भी पूजन करें।

इस दिन रतजगा या रात्रि जागरण करते हुए श्रीविष्‍णु और श्री कृष्ण की आराधना करें।

अगले दिन पुन: भगवान का इसी तरह पूजन करके ब्राह्मणों को भोजन करवा कर दान-दक्षिणा दें।

अब व्रत का समापन करें।

फिर द्वादशी तिथि पर विधिपूर्वक व्रत का पारण करें।

मंत्र-

– ‘कृं कृष्णाय नमः’

– ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’

– ‘ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं श्रीकृष्णाय गोविंदाय गोपीजन वल्लभाय श्रीं श्रीं श्री’।

– ॐ नारायणाय विद्महे। वासुदेवाय धीमहि। तन्नो विष्णु प्रचोदयात्।।

– ॐ विष्णवे नम:

– ॐ नमो नारायण। श्री मन नारायण नारायण हरि हरि।

– श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे। हे नाथ नारायण वासुदेवाय।।

तुलसी की माला से कम से 108 बार (1 माला) या अधिक से अधिक जाप करें।

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