चर्चा :पांच दशकों से साहित्य लेखन में सक्रिय हैं श्री आच्छा

By AV NEWS

वरिष्ठ साहित्यकार बी.एल. आच्छा पांच दशकों से साहित्य साधना में सक्रिय हैं राजस्थान के राजसमंद जिले में जन्मे श्री अच्छा उज्जैन बडऩगर आदि शहरों में वर्षों तक शिक्षा विभाग में रहे साहित्य लेखन के लिए अभी तक कई बार सम्मानित एवं पुरस्कृत किया जा चुका है इन्होंने कई पुस्तकों का संपादन किया है और व्यंग्य लेखन के क्षेत्र में अपनी अलग पहचान बनाई है साहित्य विश्व के लिए उनके समक्ष कुछ सवाल प्रस्तुत किए गए तो उन्होंने उनके जवाब इस प्रकार दिए

आपने लेखन की शुरुआत कितने वर्ष पहले की? लेखन की प्रेरणा आपको कहां से मिली?

लेखन के दृष्टि से सूखा पठार ही था, शुरुआती जीवन। उदयपुर के एम.बी. कॉलेज में छात्र संघ महासचिव के नाते ‘द टावर मासिक और वार्षिक पत्रिका ‘उदय का छात्र संपादक रहा। 1972 में लघु शोध प्रबंध छपा तो लेखक का खिताब। उत्सवी और चुलबुले बडऩगर के शासकीय महाविद्यालय में रहते हुए जनवरी 1981 में कवि प्रदीप पर नई दुनिया में एक साक्षात्कार छपा, तो थोड़ी चमक और छपने की ललक बढ़ी। आकाशवाणी के लिए व्यंग्य लिखा- ‘गुटका संस्कृति। बाद में हिंदुस्तान साप्ताहिक में प्रकाशित हुआ, लेकिन नईदुनिया से हर बार लिफाफा लौट आता था। पत्नी प्रेमा देवी के नाम से ‘यूनिवर्सिटी ऑफ इंगोरिया व्यंग्य नईदुनिया को भेजा। छपा तो खूब कयास लगे। तब मैं पेटलावद में पदस्थ था। बाद में यशवंत व्यास का पहला पत्र ‘अक्ल और चरित्र का छत्तीसा’ की स्वीकृति। सिलसिला चल निकला और नये-नये दैनिक भास्कर में भी। जेब के सिकुड़े अर्थशास्त्र में आकाशवाणी के डेढ़ सौ रुपए और चुलबुले बडऩगर में लोकप्रियता के मान असल प्रेरणा थे। इसे बाद में शरद जोशी, हरिशंकर परसाई, अजातशत्रु की धार से मांजता रहा।

व्यंग्य लेखन से अलग आपने कितनी विधाओं में लेखन किया?

मेरी रुचि समीक्षा और आलोचना में रही खासकर नौकरी में कॅरियर के लिए, पर अमरूद की खुशबू वाले बडऩगर में लोग शब्दों की गंध के मुरीद हैं, सो व्यंग्य शोर मचाए रहा। बाद में कुछ कविताएं और लघुकथाएं भी लिखी हैं।

आपकी रचनाएं देश के किन-किन समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं?

साप्ताहिक हिंदुस्तान, सारिका, नईदुनिया, दैनिक भास्कर, अमर उजाला, राजस्थान पत्रिका, दैनिक ट्रिब्यून, दैनिक लोकमत, शिखर वार्ता, सरिता, उत्तरप्रदेश आदि पत्र-पत्रिकाओं में। साक्षात्कार, मधुमती, हिमप्रस्थ, समावर्तन, वीणा, गगनांचल, साहित्य भारती आदि पत्रिकाओं में आलोचनात्मक आलेख।

आप शुरू में किन व्यंग्यकारों, कवियों, लघुकथाकारों से प्रभावित रहे हैं? लेखन के क्षेत्र में आप किन्हें अपना आदर्श मानते हैं?

मैंने शरद जोशी की आक्रामक सींग धंसाई, हरिशंकर परसाई के फल सफाई व्यंग्य, शब्दों के खिलंदड़ी रवींद्रनाथ त्यागी, बौद्धिक छलांग लगाने वाले मनोहर श्याम जोशी के साथ श्रीलाल शुक्ल को खूब पढ़ा। ये सभी प्रेरक ही रहे। निराला, जयशंकर प्रसाद, राहुल सांकृत्यायन, रामचंद्र शुक्ल हजारीप्रसाद द्विवेदी, धर्मवीर भारती, नागार्जुन, विद्यानिवास मिश्र को खूब पढ़ा। नए में तो कई नाम हैं। कई नये-पुराने साहित्यकारों की कृतियों पर समीक्षा पुस्तक भी प्रकाश्य है।

लेखन के लिए आपको कितनी बार सम्मानित और पुरस्कृत किया गया?

राजस्थान साहित्य अकादमी ने 2006 में सृजनात्मक ‘भाषा और आलोचना’ पर डॉ. देवराज उपाध्याय पुरस्कार दिया। सन् 2012 में मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी ने आचार्य ‘हजारीप्रसाद द्विवेदी के उपन्यास’ पुस्तक पर नंददुलारे वाजपेयी पुरस्कार। 2014 में मध्य प्रदेश लेखक संघ ने समीक्षा सम्मान दिया। इंदौर की क्षितिज साहित्य संस्था ने ‘लघुकथा समालोचना’ पुरस्कार दिया। 2019 में एसआरएम विश्वविद्यालय, चैन्नई ने भी सम्मानित किया।

आपने अभी तक कितनी पुस्तकों का प्रकाशन अथवा संग्रहों का संपादन किया?

आलोचना की तीन पुस्तकें। दो व्यंग्य संग्रह- ‘आस्था के बैंगन’ और ‘पिताजी का डैडी संस्करण’ राजस्थान साहित्य अकादमी से डॉ. कृष्णकुमार शर्मा पर पुस्तिका (मोनोग्राफ) का संपादन। प्रेमचंद सृजनपीठ, उज्जैन (संस्कृति विभाग, म.प्र. शासन) द्वारा प्रकाशित ‘सृृजन -संवाद’ लघुकथा विशेषांक का अतिथि संपादन।

व्यंग्य लेखन में लेखक को किन बातों का ध्यान रखना चाहिए?

व्यंग्य अव्यवस्था के हर स्तर पर प्रतिकार की आवाज है। लोक पीड़ा उसके भीतर का खास संवेदन और उससे मुक्ति के लिए असंगत पर मार का हथियार। व्यंग्य व्यक्ति केंद्रित के बजाए प्रवृत्ति केंद्रित अधिक हो। मारक, व्यंजक और रंजक तत्व भरेपूरे हों। साहसिक (यद्यपि मैं सरकारी मर्यादा लांघ नहीं पाया) हो पर दुस्साहसिक न हो। परिहासजनित बौद्धिकता हो, पर व्यक्तिगत विचारों और विचारधारा की लदान न हो।

सहज सी ग्राम्य सहृदयता हो, जिसे मुहावरों-कहावतों, लोक या फिल्मी संगीत, शब्दों को तोड ़मरोड़ कर नये अर्थ भरने की कोशिश और बोली या आंचलिक शब्दों का प्रयोग से रंजक बनाया जा सकता है। एक ही तीर में कइयों को भेदने या छलांग लगाकर कइयों को लपेटने की उर्वरा शक्ति हो। वाक्य छोटे और एकदूजे को ठेलते हुए। शैली के नये-नये प्रयोग। उपमानों, प्रतीकों या भीतर-बाहर की सच्चाइयों को धोने-पछीठने का सिलसिला हो, पर व्यंग्य को किसी चौखट या फॉर्मेट में बांधा नहीं जा सकता और भी कई बातें, जो कल्पना में उड़ान भरती हैं और पाठक को जितना गुदगुदाती है, उतना ही व्यंग्य की वैचारिक मार से विह्वल करती है और कार्टूनिस्ट फिट्जपैट्रिक की यह बात भी व्यंग्य रचना के दौरान ज़ेहन में बनी रहती है’-आराम की जिंदगी गुजारने वालों को सताना और सताये हुए लोगों को आराम देना।’
सुखरामसिंह तोमर

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