7 करोड़ 7 लाख में पड़ा एक टिकट..!

उज्जैन नगरीय निकाय चुनाव 2022 : चर्चा, बहस और कवायदें….

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पति अपनी पत्नि के लिए क्या-क्या नहीं करता है,यह सब फिल्मों में देखने को मिलता है। चांद तक तोड़कर ले आने की कसमे खाना फिल्म का हिस्सा हो सकता है लेकिन वास्तविक जींदगी में पत्नि को पार्षद पद की प्रत्याशी बनाने के लिए लाखो रूपए नहीं बल्कि करोड़ों रूपए खर्च करना,देखने में नहीं आता। कम से कम उज्जैन जैसे शहर में।

वाकया भी कुछ ऐसा ही है। बीसीयों वर्षो से एक परिवार राजनीति का खम उज्जैन में ठोकते आया है। कोई सा भी चुनाव हो,परिवार के पास एक टिकट तो होता ही है। उनके बारे में चर्चा है कि विधानसभा और पार्षद पद की टिकट तो वे हमेशा ले आते हैं भोपाल से। यदि सीट आरक्षित नहीं होती तो संभव है कि सांसद का टिकट भी एक बार तो मिल ही जाता उन्हे। हां, यह जरूर है कि इस बार उन्हे टिकट के लिए भारी मशक्कत करना पड़ी। अंतिम समय तक उहापोह की स्थिति रही। इधर स्वप्न में उन्हे एक राजा दिखाई दिया।

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राजा ने उनसे कहाकि उधार की कीमत पर टिकट नहीं हो सकता, तो वे उधारी चुकाने से भी नहीं चूके। फटाफट 7 करोड़ रूपए की उधारी चुका दी। उधारी चुकाने में जिन दो लोगों का सहयोग लिया,उन्हे भी 5 और 2 लाख रूपए भेंट कर दिए । इतना सब होते ही टिकट उनके घर के दरवाजे तक पहुंच गया। स्वप्न सच होते ही वे मुस्कुरा दिए। हालांकि परिवार के अन्य सदस्यों के चेहरों पर किसीप्रकार की खुशी नहीं दिखाई दी। फिर भी परिचितों ने होंसला बढ़ाते हुए कहाकि आप तो महा वीर हैं,चुनाव हारना और जीतना आपके लिए सामान्य बात है। एक बार ओर सही।

फिर क्या हुआ….:

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इधर टिकट हुआ, उधर उन्होने अपने वार्ड से निर्दलीय खड़े प्रत्याशियों से नाम वापस लेने के लिए आग्रह करना शुरू किया। कुछ लोगों ने अपना नाम भी वापस ले लिया। लेकिन एक अड़चन बनी रही। जो एक जमाने में उनके सहयोग से पार्षद बनी थीं, उन्होने अपना नाम वापस लेने से इंकार कर दिया और कहा कि वे तो केक काट कर रहेंगी। अब मुकाबला त्रिकोणीय हो गया है। जीतने के लिए इंद्र की सेना तन-मन-धन से जुट गई है। हालांकि कुछ मतदाताओं का आरोप है कि यह सबकुछ उन्हे शोभा नहीं देता लेकिन बात अड़ीबाजी की थी,इसलिए जंग में सब जायज की तर्ज पर चुनाव प्रचार जोरों पर है। जैसे-जैसे उनका चुनाव प्रचार उठ रहा है,उनके शुभचिंतकों में हलचल मच रही है।

इनका त्याग भी किसी से कम नहीं…:

बताया जाता है कि इस टिकट पुराण में त्याग को लेकर कई प्रकार के किस्से चर्चाओं में है। एक किस्सा ऐसा है कि टिकट लेने, परिवार के सारे सदस्य तैयार नहीं थे। जब विरोध आया तो दावेदार ने परिजनों से कहाकि जाओ, मैरे वो पहले दिन मुझे लौटाओ,जब मैं चुनाव नहीं लडऩा चाहता था और मुझे जबरन चुनाव मैदान में उतारा गया था। हार तो नहीं पहना, हार का स्वाद जरूर चख लिया था।

जब आगे भी चुनाव लडऩे से मना किया तो कहा गया कि यह तो करना ही होगा। परिवार की खातीर बगैर किसी परिणाम के जंग जारी रखी। आज जब मन से चुनाव मैदान में उतरा हूं, पत्नि को एक बार पार्षद बनवाने के लिए,तो परिवार के ही लोग दूर से देखकर ताली बजा रहे हैं। एक साथ रहेंगे तो एकता दिखेगी। दूरी बनाएंगे तो हमलावरों की संख्या बढ़ती चली जाएगी। इसका यह असर हुआ है कि अब परिवार का प्रवाह चुनाव प्रचार की तरफ होता जा रहा है।

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