महाकाल की शाही सवारी में सभी आदिवासी दल एक साथ देंगे नृत्य प्रस्तुति!

महाकाल मंदिर प्रशासन को प्रस्ताव भेजेंगे, अनुमति मिलने पर होगी पहल
Thank you for reading this post, don't forget to subscribe!
अक्षरविश्व न्यूज.उज्जैन। राजाधिराज भगवान महाकाल की 2 सितंबर को निकोने वाली शाही सवारी में एक नया अध्याय जुड़ सकता है। वह यह कि सभी आदिवासी नृत्य दल एक साथ अपनी प्रस्तुतियां दी सकते हैं। इसके लिए महाकाल मंदिर प्रशासन को संस्कृति विभाग के अंतर्गत संचालित त्रिवेणी संग्रहालय से एक प्रस्ताव भेजा जाएगा। अनुमति मिलने पर ये प्रस्तुतियां एक साथ देखी जा सकेंगी। इससे शाही सवारी में एक नया अध्याय जुड़ जाएगा।

भगवान महाकाल की सवारी देश भर के लोगों के लिए आस्था के साथ आकर्षण बन गई है। मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव की पहल पर इस बार हर सवारी में आदिवासी कलाकारों के दलों द्वारा अपनी नृत्य प्रस्तुतियां दी जा रही हैं। इससे सवारी का एक अलग स्वरूप और आकर्षण बन गया है। इसी कड़ी में श्रावण की अंतिम सवारी में सोमवार को गोंड जनजातीय करमा/ शैला नृत्य दल ने अपनी कला का प्रदर्शन किया।
दल अध्यक्ष प्रतापसिंह धुर्वे के नेतृत्व में कलाकारों ने अपनी एक विशिष्ट छाप छोड़ी। धार जिले के जनजातीय कलाकारों ने अजय सिसौदिया के नेतृत्व में भील भगोरिया नृत्य से श्रद्धालुओं का मन मोहा था। जनजातीय कलाकारों द्वारा ढोलकिया, पिप्री, मांदल आदि वाद्ययंत्रों के साथ आकर्षक नृत्य की प्रस्तुतियां दी गई। अब भादौ मास की दो सवारियां निकलना शेष हैं। छठवीं सवारी 26 अगस्त को निकलेगी और शाही सवारी अगले माह 2 सितम्बर को निकलेगी। शाही सवारी में उन सभी दलों की नृत्य प्रस्तुतियां हो सकती हैं, जो अब तक हर सवारी में बारी बारी से प्रस्तुतियां देते आ रहे हैं।
आदिवासी नृत्य और विशेषताएं
काठी नृत्य: नर्तक जमीन पर नहीं रखते काठीमाता को
काठी नृत्य देवप्रबोधिनी एकादशी से शुरू होता है और महाशिवरात्रि पर इसका समापन होता है। देवी पार्वती की पूजा के इस नृत्य में ‘काठी’ सजाई जाती है। बाँस के एक मीटर लम्बे टुकड़े के ऊपरी सिरे पर बेर की लकड़ी आड़ी बांध कर इसे ‘क्रास’ का आकार दिया जाता है। जंगल से लकड़ी काट कर लाना और बाँधना यह कार्य विधि-विधान से पूजन द्वारा सम्पन्न किया जाता है। बाँस के ऊपरी सिरे पर सफेद कपड़े से मोरपंख बाँधकर मुकुट की तरह सजाया जाता है।
‘क्रास’ के आकार को सफेद कपड़े से लपेट कर बाहुओं का आकार दिया जाता है तथा लाल पीले वस्त्रों से इसकी सजावट की जाती हैं कपड़े के एक छोर पर पैसा-सुपारी, कुमकुम चावल बाँधे जाते हैं इस सजी-धजी ध्वजा को ‘काठीमाता’ कहा जाता है। इसे जमीन पर नहीं रखा जाता है। बाँस को नीचे आधार देने के लिए लकड़ी के एक पहिए का उपयोग होता है। काठी नर्तकों की वेशभूषा चित्ताकर्षक होती है। इस भूषा को ‘बागा’ कहते हैं। इस नृत्य का मुख्य वाद्य ‘ढाक’ है जो छोटी झुग्गी के आकार का होता है। इसे रस्सी से बाँध कर कमर तक लटकाकर रखा जाता है ताकि आसानी से बजाया जा सके। ‘ढाक’ की ध्वनि की ‘लय’ के साथ पीतल की थाली की ‘ताल’ की जुगलबंदी के साथ नर्तक दल का पद-संचालन होता है।
घसिया बाजा: बारह अलग तालों में होता है नृत्य
विंध्य मेकल क्षेत्र का प्रसिद्ध घसिया बाजा सीधी के बकबा, सिकरा, नचनी महुआ, गजरा बहरा, सिंगरावल आदि ग्रामों में निवासरत घसिया एवं गोंड जनजाति के कलाकरों द्वारा किया जाता है। इस नृत्य की उत्पत्ति के संबंध में किंवदंती है कि यह नृत्य शिव की बारात में विभिन्न वनवासियों द्वारा किए जा रहे करतब का एक रूप है। जिस तरह शिव की बारात में दानव, मानव, भूत प्रेत, भिन्न भिन्न तरह के जानवर आदि शामिल हुए थे कुछ उसी तरह इस नृत्य में भी कलाकारों द्वारा अनुकरण किया जाता है।
शाही सवारी में सभी आदिवासी दलों के कलाकार एक साथ अपनी प्रस्तुतियां दे सकें, इसके लिए एक प्रस्ताव महाकाल मंदिर प्रबंध समिति के अध्यक्ष को भेजेंगे। अनुमति मिलने पर आगे की तैयारी हो सकेगी। गौरव तिवारी, निदेशक त्रिवेणी संग्रहालय
पूर्वी मध्यप्रदेश में कर्म पूजा का उत्सव मनाया जाता है, उसमें कर्मा नृत्य किया जाता है। शैला कर्मा नृत्य करमा कर्म करने की प्रेरणा देता है। भगवान महाकाल की सवारी के साथ यह नृत्य प्रस्तुत करने में एक अलग अनुभव हुआ। सरकार ने हमारी नृत्य कला को एक नया आधार दिया है। प्रतापसिंह धुर्वे, दल अध्यक्ष लालापुर, डिंडोरी








