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कार्तिक मेले को इवेंट नहीं समझेंअधिकारी, इसे मेला ही रहने दें…

मेले में मजा नहीं, एक समय था जब मेला घूमने में करीब 6 घंटे लगते थे 

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अधिकारी और पार्षद मिलकर काम करें तो पुराने स्वरूप में लौट सकता है मेला

 

अक्षरविश्व न्यूज:उज्जैन। कार्तिक मेला जनता का है, जनता के लिए है। मनोरंजन पर उसका हक है। मत छीनिए उसका हक। परंपरा को निभाइए। इसे आय का साधन मत समझिए। अधिकारियों को यहां की परंपरा और विरासत का मूल्य बताइए। मेले के लिए पक्ष और विपक्ष कुछ नहीं है। लक्ष्य बनाइए, हमारा कार्तिक मेला।

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सांस्कृतिक एकता और सांप्रदयिक सौहाद्र का प्रतीक कार्तिक मेला राजनीति के झंझावात में फंस कर अपनी परंपरा से दूर होता जा रहा है। मेले का अब वह स्वरूप नहीं रहा जो कभी हुआ करता था। पार्षदों की आपसी खींचतान, प्रशासनिक हस्तक्षेप और दूरदर्शिता के अभाव में सिर्फ मेला लग रहा है। इस मेले से सभी को आस रहती है। अभी एक महीना शेष है। जिम्मेदार चाहें तो इस मेले के पुराने स्वरूप में लाकर इतिहास पुरूष बन सकते हैं।

कार्तिक मेले का इतिहास बहुत पुराना है। कहा जाता है यह सम्राट विक्रमादित्य के जमाने से लग रहा है। उनके पिता गर्दभिल्ल ने इसकी शुरूआत की। प्रामाणिक तौर इस मेले की व्यवस्था 1912 में तत्कालीन नगर पालिका के हाथ में आई। उस समय के जनप्रतिनिधियों ने मेले को भव्यता प्रदान की। कालांतर में मेले का स्वरूप निखरता चला गया। दूर-दूर के व्यापारी यहां आने लगे। जैसे-जैसे राजनीतिक हस्तक्षेप बढ़ता गया, मेला अपनी विरासत और भव्यता से दूर होता गया। मेला लगाना है, मेला लग गया और मेला खत्म हो गया।

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आय का साधन बन गया मेला
मेला लगने से व्यापारियों को आय हुई, लेकिन यह बात भी किसी से नहीं छुपी है कि मेला लगाने वालों को भी मेले से आय हुई। अतीत के पन्ने पलट कर देखें तो दुकानों के आवंटन को लेकर खूब विवाद हुए। यह विवाद प्रशासन और वरिष्ठ जनप्रतिनिधियों तक पहुंचे। नतीजतन, बहुत से व्यापारियों ने मेले से तौबा कर ली। इसका खामियाजा शहर और आसपास के उन लोगों को उठाना पड़ा जो मनोरंजन के लिए मेले में जाते हैं।

एक जमाना तब सर्कस लगता था
कार्तिक मेले का आयोजन करने वाली युवा पीढ़ी अपने बुजुर्गों से बात करे। उनके संस्मरण सुने तब पता चलेगा कि पहले मेले का स्वरूप कैसा था? पता चलेगा कि इस मेले में सर्कस लगता था। उनकी अच्छी कमाई होती थी। सभी विभागों की उपलब्धियों और योजनाओं को लेकर प्रदर्शनी लगती थी। करीब एक घंटा तो इसी प्रदर्शनी में ही लग जाता था। शिक्षा विभाग की इस मेले में बड़ी भूमिका रहती थी। शानदार मीना बाजार लगता था। जादूगर, हंसी घर, झूले और तमाम मनोरंजन के साधन हुआ करते थे।

अधिकारी मेले को मेला नहीं मानते

जनप्रतिनिधियों का मन टटोलें तो यह बात सामने आती है कि नगर निगम के अधिकारी इस मेले को एक इंवेट ही मानते हैं। जिस तरीके से इस मेले की परंपरा का निर्वाह किया जाना चाहिए। जिस तन्मयता और समर्पण भाव से मेला लगाना चाहिए वह भाव अधिकारियों में नहीं रहता।

सांस्कृतिक आयोजन से भी निराशा

मेले में होने वाले सांस्कृतिक आयोजन राजनीतिक हस्तक्षेप और एक सूत्रीय नीति में उलझ कर रह गए। पहले आयोजन होते थे तब आयोजन और किरदारों के नाम पर भीड़ उमड़ती थी। अब न वैसे आयोजन हैं और न वैसे किरदार आते हैं।

पहले पांच घंटे लगते थे मेले में

मनोरंजन की दृष्टि से देखा जाए तो पहले जो लोग मेले में जाते थे, उन्हें मेला घूमने में कम से कम पांच-से छह घंटे लगते थे। अब डेढ़ घंटे में घूम लेते है। यानी लोगों को निराशा ही हाथ लगती है। मेले की भव्यता की बात करें तो मंदसौर का मेला उज्जैन की तुलना में ज्यादा बेहतर और बड़े स्वरूप में नगर आता है।

नीरज, शैल, राज, सागर और खुमार

कार्तिक मेले के कवि सम्मेलन और मुशायरे ऐसे होते थे कि लोग कड़ी ठंड में भी खिंचे चले आते थे। फिल्मी गीतकार गोपालदास नीरज को सुनने के लिए काव्य रसिक रातभर बैठे रहते थे। शैल चतुर्वेदी को कार्तिक मेला रास आता था। सागर आजमी ने तो १९८९ के मुशायरे में लगातार आठ गजलें सुनाई थी। श्रोता उन्हें बैठने नहीं दे रहे थे। राज इलाहाबादी और सागर खय्यामी जैसे शायरों ने इस मेले में अशआरों की शमा रोशन की है। अपने जमाने के फिल्मी गीतकार खुमार बाराबंकवी को यहां के लोग सुन चुके हैं। महमूद सहर का वह जमाना था। उनके बुलावे पर वो शायर आते थे जिन्हें सुनने के लिए श्रोता लालायित रहते हैं। अब पहले जैसी बात नहीं रही।

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