बडऩगर के पूर्व विधायक मुरली मोरवाल के एक समर्थक ने पूर्व सीएम कमलनाथ के बंगले के बाहर अपने ऊपर पेट्रोल झारकर आत्मदाह का प्रयास किया। स्वयं मोरवाल ने भी विरोध प्रदर्शन किया, क्योंकि इस बार पार्टी ने उनका टिकट काट दिया। यह विरोध की पराकाष्ठा है और इस बात का संकेत भी कि हमारी राजनीति क्या टिकट और पद प्राप्ति तक सीमित हो गई है? नि:संदेह इस प्रश्न का उत्तर किसी से भी वर्तमान परिदृश्य में हां में ही मिलेगा। विरोध प्रदर्शन कांग्रेस ही नहीं भाजपा में भी दिखाई देते हैं। ये कोई नई बात नहीं, हर बार होता है और उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही लेकिन आत्मदाह का प्रयास भले ही राजनीतिक ड्रामे करार दिए जाएं परंतु पार्टी का नेतृत्व करने वालों को चिंतन करना चाहिए कि इसके लिए कौन और कैसे जिम्मेदार है।
टिकट नहीं मिला तो विरोध प्रदर्शन और टिकट मिल जाए तो अपने नेता या पार्टी की तारीफ में पुल बांध देना, अब सभी को समझ आता है किंतु किसी को यह क्यों समझ नहीं आता कि अगर क्षेत्र में कोई काम नहीं हुआ तो जनता के हित के लिए इस तरह का विरोध प्रदर्शन किया जाए। अगर सड़क पर गड्ढे हैं, तो इनकी रगों का खून क्यों नहीं खौलता? तब तो धृतराष्ट्र बन जाते हैं और टिकट नहीं मिले तो अपने ही नेता के खिलाफ विरोध प्रदर्शन करने लगते हैं या पार्टी बदल लेते हैं। यह कैसी राजनीति है, कैसी जनसेवा है? इस बात को कोई राजनीतिक दल समझे या न समझे, आम लोगों को समझने की आवश्यकता है। जन सेवा के नारे को अपने स्वार्थ की पूर्ति का अस्त्र बना लिया गया है। यह भारतीय राजनीति के लिए गंभीर चिंतन की बात होना चाहिए।
1960 के दशक में जब देश में अनाज का संकट खड़ा हुआ और अमेरिका ने कुछ शर्तों के साथ भारत को अनाज देने की पेशकश की थी। तत्कालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने पहले अपने परिवार के साथ एक दिन उपवास शुरू किया और जब भरोसा हो गया कि एक दिन भोजन न भी किया जाए तो इंसान भूख बर्दाश्त कर लेता है, तब उन्होंने देशवासियों से आव्हान किया था। हमारी राजनीति की यह उजली तस्वीर अब स्वार्थ की राजनीति में गुम हो गई है। हम प्रभु श्रीराम को पूजते अवश्य हैं, लेकिन जब बात त्याग की आती है तो पद और अधिकार के लिए लडऩे लग जाते हैं। जन सेवा केवल भाषण का श्रृंगार बनकर रह गई है। यह सबको दिखाई दे रहा है, किन्तु इस रोग का ट्रीटमेंट कैसे किया जाए, यह सोच अभी कहीं दिखाई नहीं दे रही क्योंकि इसकी शुरुआत स्वयं से करना होगी, चाहे वह किसी भी बड़े पद पर क्यों न हो।
प्रासंगिक
सुधीर नागर