कोरोना के बाद से स्कूल ही छोड़ दिया, कहां तक पढ़े यह भी बच्चोंं को नहीं मालूम
अक्षरविश्व न्यूज. उज्जैन:कंधों पर प्लास्टिक की बोरियां जिनमें भरी प्लास्टिक की बाटल, खाने की प्लेटें, लोहे, पतरे के टुकड़े कचरे से ढूंढते बच्चों ने जैसे ही कैमरा देखा तो पहले घबराए, फिर शरमाए और चेहरा छुपाने लगे। उन्हें जब विश्वास में लेकर बातचीत शुरू की तो मात्र 10 से 13 वर्ष की उम्र की पूरी कहानी खोलकर रख दी।
हर बच्चे की अलग कहानी, लेकिन एक थी परेशानी गरीबी। मेरा नाम सोना पिता कालू है। मैं नीलगंगा जबरन कालोनी में रहती हूं। मुझे मेरी उम्र की जानकारी नहीं है। पिता कचरा गाड़ी चलाते हैं। अकेले पिता की कमाई से घर का गुजारा नहीं होता। मां भी काम करने जाती है। मैं सुबह 8 बजे कचरा बीनने निकलती हूं। दोपहर 2 बजे तक कचरे में लोहा, पतरा, प्लास्टिक का जो सामान मिल जाता है उसे बोरी में भरकर अटाले की दुकान पर बेच देती हूं। 200 से 250 रुपये मिल जाते हैं।
योजनाएं तो हैं, लेकिन अमल नहीं
केन्द्र व राज्य शासन द्वारा गरीब बच्चों के लिये अनेक योजनाएं संचालित की जाती हैं जिनमें बच्चों के स्कूल जाने से लेकर उनके भोजन, ड्रेस, कॉपी किताब आदि की व्यवस्था होती है, इसके बावजूद बच्चों तक इन योजनाओं का लाभ नहीं पहुंचता। शहर की बस्तियों में रहकर भिक्षावृत्ति करने वाले अथवा कचरा बीनने वाले बच्चों की काउंसिलिंग कर उन्हें स्कूल भेजने की योजना का संचालन महिला एवं बाल विकास द्वारा किया जाता है, लेकिन वर्तमान में इस विभाग के अफसरों को शहर में घूमते ऐसे बच्चे दिखाई नहीं दे रहे।
बच्चे बोले- रुपयों की कमी से नहीं चलता घर
मेरा नाम जमना पिता देवनारायण है। पापा की मृत्यु हो चुकी है। मां घर खर्च चलाने के लिये मजदूरी करती है। मुझे अपनी उम्र नहीं पता। घर में ओर भी भाई बहन हैं। रुपयों की कमी के कारण घर का खर्च नहीं चल पाता। सोना कचरा बीनकर कुछ कमा लेती है तो मैं भी अपना थैला लेकर उसके साथ कचरा बीनने चली जाती हूं।
मेरा नाम कपिल पिता संतोष है। उम्र की जानकारी नहीं, पिता की मृत्यु हो चुकी है। कोरोना के पहले स्कूल जाता था तो वहां खाना मिल जाता था। बाद में स्कूल नहीं गया। कौन सी कक्षा तक पढ़ाई की यह भी नहीं पता। मोहल्ले की लड़कियां कचरा बीनने जाती हैं तो उनके साथ मैं भी कचरा बीनने लगा। अब यह काम अच्छा लगता है। प्लास्टिक कचरा इकट्ठा कर बेचने से रुपये भी मिलते हैं जिससे मैं अपना खर्चा चला लेता हूं।
अनिता पिता रमेश ने बताया कि मेरे पापा नहीं हैं। घर की हालत खराब है। रुपयों की जरूरत पड़ती है इसलिये अटाला बीनने निकलते हैं। हालांकि रोजाना इतना अटाला नहीं मिलता इस कारण कालोनी बदल बदल कर पैदल घूमते हैं तब कहीं जाकर बोरी भर अटाला इकट्ठा होता है। स्कूल जाने का अब मन नहीं होता। अनिता बताती है कि स्कूल के समय में ही 200-250 रुपये का अटाला बीन लेते हैं जिससे मां की मदद हो जाती है।