गजल… कांच के घर है

हाथों में जिन- जिनके आज पत्थर है
सोच ले सौ बार उनके कांच के घर है

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सांप का काटा तो बच भी सकता है
उससे ज्यादा इनकी बातों में जहर है

पीने का पानी नही है पास में उसके
भले ही कहने को वो महा समंदर है

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ऊपर से तो भोले भाले लगते है ये भी
कितनी नफरत भरी हुई इनके अंदर है

सारी दुनिया लूट कर क्या मिला उसे
खाली हाथ रुखसत हुआ सिकंदर है

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सब उसके बनाये बंदे है गर दुनिया में
क्यों फिर गरीब आज भी दर ब दर है

मौत का आना तो निश्चित है एकदिन
फिर तेरे दिल में किस बात का डर है

आत्मनिर्भरता हो या देश का विकास
मजदूर के बगैर सब दिवास्वप्न भर है

कहाँ मिलती है सबको रहमत उसकी
पथिक ये तो अपना अपना मुकद्दर है

प्रेम पथिक, उज्जैन

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