बूढ़ी आंखें यादों में खोकर बोली-तब कर्तव्यथा चुनाव प्रचार करना….

By AV NEWS

कांग्रेस आज-कल

अब घर से मिन्नतें कर बुलाना पड़ता है भीड़ इकट्ठा करने के लिए

ललित ज्वेल. उज्जैन:शहर में चुनावी रंग जमने लगा है। प्रत्याशियों के द्वारा मतदाताओं के घर जाकर जनसंपर्क का सिलसिला जोर-शोर से शुरू हो गया है। जैसा कि होता है सबसे आगे पार्टी के झंडे, उसके बाद ढोल। इसके बाद समर्थकों से घिरे, फूलमालाओं से लदे प्रत्याशी। इन सबमे सबसे महत्वपूर्ण होता है कार्यकर्ता। जिसके हाथ में होती है प्रत्याशी की हार-जीत।

अक्षरविश्व ने शहर के बुजूर्ग कांग्रेस कार्यकर्ताओं से चर्चा की। ये वे कार्यकर्ता हैं, जिनका नाम कांग्रेस की नई पीढ़ी तो ठीक, उज्जैन उत्तर एवं दक्षिण के प्रत्याशी भी नहीं जानते हैं। हां, ये बुजूर्ग चर्चा में इन प्रत्याशियों के पिता-दादा के बारे में जानकारी दे देते हैं। जब उनसे उनके जमाने में चुनाव प्रचार को लेकर चर्चा की गई तो वे आंखों मेंं चमक लेकर बोले- वो जमाना (1960 से 1990 का दशक) कुछ ओर था।

तब चुनाव आने पर एक अलग ही जोश हुआ करता था। ऐसा लगता था मानो युद्ध पर जा रहे हों अपने देश के लिए। पार्टी तो केवल एक थी लेकिन नेताओं के झुंड थे। आपसी समन्वय के कारण सभी कार्यकर्ता केवल प्रदेश और केंद्र के नेतृत्व की ओर देखते थे। इसलिए जो प्रत्याशी दिया जाता, उसका प्रचार करना कर्तव्य समझते थे। आज जैसा टिकट वितरण के बाद विरोध का माहौल रहता है, वैसा माहौल नहीं रहता था। प्रचार करने बड़ा नेता आए तो ठीक, वरना कार्यकर्ता घर-घर जाकर प्रचार करता ही था।

बस एक ही बात का इंतजार रहता था कि दिल्ली/भोपाल से पार्टी के चुनाव चिह्न छपे हुए कागज एवं पतरे के बिल्ले कब आएंगे? जैसे ही बिल्ले आते, बंट जाते। हर कोई अपने शर्ट पर बिल्ला लगाना गर्व समझता था। पार्टी के झंडे चुनाव कार्यालय पर बंटते तो सभी अपने घरों पर लेकर जाते।

कार्यकर्ता दो झंडे लेते। एक घर पर टांगते और दूसरा अपने पास रखते चुनाव प्रचार के समय। रोजाना सुबह घर से प्रचार करने निकलते तो अपना झंडा अपने घर से लेकर जाते। रात को घर आकर झंडा पुन: सुरक्षित रख देते। परिणाम वाले दिन तक सुरक्षित रहता था झंडा। जिसकी पार्टी हारती, उसके झंडे रात भर में फाड़ देते। थोड़े बहुत झगड़े भी होते लेकिन पुलिस का हस्तक्षेप हुए बिना सुलझा लिए जाते। उस जमाने में पार्टी कार्यकर्ता ही जोश में होश खोकर झगड़ लेते थे। ये याद रखा जाता था कि किसने विरोध किया था? बस, उस रात उसकी वाट लग जाती।

चर्चा में ऐसे पुराने कार्यकर्ता बताते हैं कि चुनाव प्रचार सिर्फ और सिर्फ पार्टी के चुनाव चिह्न का किया जाता। विधायक/सांसद का चुनाव लड़ रहे प्रत्याशी के ब्लाक में छपे फोटो वाले पर्चे बांट देते। मतदाताओं को कोई खास फर्क नहीं पड़ता था कि प्रत्याशी उसके घर आए या नहीं। उसे केवल पार्टी के चुनाव चिह्न पर मोहर लगाना, इतना पता रहता था। विकास का दौर था, इसलिए कमियां गिनाने की बजाय कितना काम हो चुुका है, यह बताते।

चुनाव कार्यालय पर सुबह से रात तक जोरदार आवाज में लाउड स्पीकर्स पर नेताओं के भाषण और गीत बजते। कानफोडू संगीत के साथ तांगों में पार्टी का प्रचार होता। चुनाव कार्यालय से लगी धर्मशाला में सुबह पोहे-चाय और दोनों समय सब्जी-पूड़ी बनती। भंडारा जैसा माहौल रहता। किसी पर कोई रोक-टोक नहीं। जिसे प्रचार के लिए तांगा मिल जाता, वह सुबह से रात तक माईक ऐसा चूसता कि अगले दिन उसका गला बैठ जाता था। अगले दिन किसी दूसरे को माईक थमा दिया जाता था।

चुनावी शोर में बच्चों की टोलियां का अलग आलम था। ये अपने मोहल्ले में झुंड बनाकर नारे लगाते दिख जाते थे। नारे भी सीधे विरोधी प्रत्याशी के खिलाफ। कोई रोक टोक नहीं होती और आज जैसी कोई चुनावी आचार संहिता नहीं रहती, जिसमें सख्ती हो। बच्चों की टोलियों की एक ही मांग रहती थी…बिल्ला। यदि वह नहीं मिला तो समझो नाराज बाल सेना से कोई काम नहीं करवाया जा सकता।

स्कूलों में चुनावी माह में उपस्थिति निरंक जैसी रहती थी। बच्चे चूंकि चुनावी शोर में रमे रहते, ऐसे में न शिक्षक और न ही पालक उन्हें कुछ कहते। ऐसे मामले भी रहते जब बच्चे स्कूल में ही झंडे लेकर पहुंच जाते और मास्टरजी के डांटने पर वहां से दौड़ लगाते।

आज के माहौल पर यह है इनकी टिप्पणी

आज के चुनावी माहौल को लेकर बुजूर्ग बताते हैं-अब पहले जैसी बात नहीं रही। न रिश्ते, न मित्रता और न ही मोहल्ले के संबंध। सबकुछ स्वार्थ के दायरे में आ गया। अब चुनावी उत्सव की जगह रंजिश का माहौल हो गया। चुनाव बाद पांच साल तक दुश्मनी निकालने की मंशा और परेशान करने के कारण ढूंढे जाते हैं। तब के दिनों में मनमुटाव नहीं होता था। चुनावी माह के बाद सबकुछ पहले जैसा हो जाता था।

परिणाम आने के बाद दो चार दिन की मसखरी होती और लोग अपने काम में लग जाते। जनसंघवालों/जनता पार्टीवालों/भाजपावालों के काम भी नहीं रूकते थे। समस्या आने पर आपस में मिलजुल कर उसे हल करवाते। हमारे नेताओं के पास जाकर कहते थे कि इनका काम करना है। अब हालात बदल गए। विरोधी को घर तक छोड़कर आते हैं भाईलोग। (जैसा चर्चा में बुजूर्ग कांग्रेस कार्यकर्ता-सर्वश्री गणपतसिंह यादव, कन्हैयालाल वर्मा, संतोष मीणा, अशोक पंवार, देवीलाल देवड़ा आदि ने बताया।)

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