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अक्षरविश्व के लिए पर्युषण पर्व पर मुनिश्री सुप्रभसागजी की कलम से’

‘उत्तम तप धर्म’

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संसार के पतन से बचाने वाला यदि कोई है तो उसका नाम है उत्तम तप

पर्युषण महापर्व में दसलक्षण पर्व की शुरुआत हो गई है। इस मौके पर अक्षरविश्व के विशेष आग्रह पर मुनिश्री सुप्रभसागर जी की लेखनी से पर्वराज पर्युषण और दसलक्षण पर्व की विशेष प्रवचन माला प्रकाशित की जा रही है….

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संसार पतन का कारण है आज तक मैंने सम्यक् रुप तप न किया क्योंकि संसार पतम से बचने का एकमात्र उपाय है, उसका नाम है उत्तम तप धर्म। अनंत संसार में अनंत इच्छाओं को लेकर जीव जन्म लेता है, उन इच्छाओं की पूर्ति में ही पूरा जीवन लगा देता है और इच्छाओं के लिए ही मृत्यु को प्राप्त हो जाता है, लेकिन जो अपनी इच्छाओं, आकांशाओं को रोक लेता है, अपनी अभिलाषा को सीमित कर लेाि है उसके लिए ही तप होना संभव है।

जिसे देखकर एक मिथ्यादृष्टि जीव की श्रद्धा प्रकट हो जाए, ऐसा वह बाह्य तप होता है और जिससे अंतरंग में विशुद्धि बढ़े वह अंतरंग तप है। जहां-जहां अपेक्षा है वहां आत्मा की, तप की विराधना है और जहां अपेक्षा की भी उपेक्षा हो जाती है उसका ही नाम साधना है। बारह प्रकार के उन तपों को तपने वाले जीव, भव-भव के दु:ख से छूटकर अनंत सुखों को अवश्य ही प्राप्त होता है।

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लोक और परलोक सुख की अपेक्षा न करके अनेक प्रकार से काय क्लेश करता है, उसके पास ही निर्मल तप धर्म होता है। उस उत्कृष्ट तप को प्राप्त करने के लिए सुरपति भी तरसता है लेकिन कर्मों का ऐसा जोर होता है कि वे चाहते हुए उस तप को धारण नहीं कर पाते हैं। जहां चारों प्रकार के आहार का संकल्पपूर्वक त्याग होता है ऐसा वह अनशन तप है, जो बिना किसी इच्छा के तपा जाता है।

कलिकाल है जहां मनुष्य अन्न का कीड़ा बन हुआ है। चित्त चलायमान है ऐसे खोटे पंचमकाल में भी सबसे बड़ा चमत्कार है तो वह दिगंबर मुद्रा को धारण करने वाले, अनशन आदि तपों को तपने वाले निग्रंथ मुनि हैं। कर्मरूपी शत्रुओं को जीतने का यदि कोई उपाय है तो उसका नाम समसम्यक् तप है और यदि वह तप बिना किसी इच्छा, आकांक्षा के तपा जाता है तो निश्चित ही कर्मों को नष्ट करने का साधन बनता है। संयम की साधना के लिए, इंद्रियों के दमन के लिए, संयम के निरतिचार पालन के लिए सबसे साधन है ऊनोदर तप क्योंकि भूख से अधिक खाने पर प्रमाद की वृद्धि होती है और आत्मा की साधना में विघ्न उत्पन्न होता है इसलिए निग्र्रंथों मुनिराज खड़े होकर आहार ग्रहण करते हैं। जहां राग-द्वेष की निवृत्ति होती है, उस राग-द्वेष से दूर होने के मुनिराज वृत्ति परिसंख्यान व्रत का पालन करते हैं। रस परित्याग व्रत का पालन करते हैं। विविक्तशयासन दिनभर की थकान मिटाने के लिए साधुजन अल्प निद्रा लेते हैं वह भी एक करवट, ये निग्र्रंथों का विविक्त शयासन नाम का बहिरंग तप है।

काय क्लेश बुद्धिपूर्वक अनेक प्रकार की शरीर के माध्यम से पीड़ा को सहन करना वह भी बिना किसी संक्लेशता के। जिससे अंतरंग में विशुद्धि बढ़े, जो कर्म निर्जरा का साधन बने वे प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्ति, स्वाध्याय, कायोत्सर्ग और ध्यान रूप अंतरंग तप जिनागम में कहे गय हैं और इन अंतरंग, बहिरंग तपों को निग्र्रंथ मुनिराज अपनी शक्ति को न छिपाते हुए सदा संलग्न रहते हुए उत्तम तप धर्म को धारण करते हैं।

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