जिम्मेदारी

मीनू की कार ट्रैफिक में फंसी थी। समय काटने के लिए उसने इधर-उधर देखना शुरू किया। सड़क के दाईं ओर के नुक्कड़ पर कुछ लड़के झुंड बनाकर खड़े थे। वे हर आने-जाने वाले को परेशान कर रहे थे। कोई लड़की, औरत या बुढिय़ा वहां से गुजरती तो वे उस पर फब्तियां कसते और दांत निपोरकर हंसने लगते।
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उनमें से एक ने वहां से जाने वाली साइकल के पहिये में लकड़ी फंसाकर उसके चालक को कीचड़ में गिरा दिया और सब एक बार फिर खों-खोंकर हंसने लगे। तभी वहां से एक बुजुर्ग निकले। उस झुंड में सबसे आगे खड़े लड़के ने बदतमीजी की सारी सीमाएं पार करते हुए उनकी धोती खींच ली। वे बुजुर्ग आग बबूला हो उठे लेकिन आसपास से लोग यूं आ-जा रहे थे जैसे किसी ने कुछ देखा ही न हो। मीनू ने भी हताश हो अब सड़क के बाईं देखना शुरू कर दिया। वहां सीवेज का पाइप फटा पड़ा था जो घर-घर की गंदगी सड़क पर उंडेल रहा था। मीनू को उबकाई-सी आई लेकिन तभी ट्रैफिक कुछ कम हुआ और उसकी कार फिर रेंगने लगी।
थोड़ी दूर जाते ही मीनू की नजऱ कार के बाएं शीशे पर गई। दो-तीन प्लंबर उस फटे पाइप को ठीक करने की कोशिश कर रहे थे। उसे सुखद आश्चर्य हुआ। अब उसने दाएं शीशे में देखा। सड़क पर पुलिस की जीप खड़ी थी जो उन लड़कों से खचाखच भरी थी। नुक्कड़ अब खाली पड़ा था। पास ही खड़े वे बुजुर्ग पुलिस ऑफिसर से कुछ बात कर रहे थे।
मीनू की आंखे चमक उठीं। वह अपने-आप से ही बोली, ‘ओह! इसका मतलब उन अंकलजी ने ही कंप्लेंट करके……’ लेकिन अगले ही पल उसकी आवाज किसी गहरे कुएं से आती हुई प्रतीत हुई,’ …..तो क्या अभी भी देश का भार….बुजुर्ग कंधों को ही ढोना होगा!’/
अनघा जोगलेकर, गुरुग्राम हरियाणा
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