‘उत्तम संयम’
संयम को देखकर देवगण भी उनके चरणों में नतमस्तक होते हैं
पर्युषण महापर्व में दसलक्षण पर्व की शुरुआत हो गई है। इस मौके पर अक्षरविश्व के विशेष आग्रह पर मुनिश्री सुप्रभसागर जी की लेखनी से पर्वराज पर्युषण और दसलक्षण पर्व की विशेष प्रवचन माला प्रकाशित की जा रही है….
सं यम का व्याख्यान शब्दों में करना जितना आसान है, उस संयम को अपने जीवन में पालन करना उतना ही कठिन है, क्योंकि संयम का विषय थ्यौरी का नहीं अपितु प्रेक्टिकल का है। उस संयम को प्रेक्टिकल के रूप में वही प्राप्त कर सकता है जो संसार से भयभीत है। इंद्रीय संयम और प्राणी संयम के भेद से दो प्रकार का संयम जिनागम कहा गया है। प्राणी संयम को प्राप्त करना है तो सबसे पहले इंद्रीय संयम को समझते हुए उसमें लीन होने की आवश्यकता है। अनादि के अविद्या, अज्ञान के संस्कार जीव में ऐसे पड़े हुए हैं कि वह इंद्रियों में, इंद्रीय के विषयों में सहजता से ही प्रवृत्ति करता है।
संसार अत्यंत कठिन कार्य है। इंद्रीय को नियंत्रित करना और इंद्रियों के विषय में होने वाली प्रवृत्ति रोकना, यदि इंद्रीयों को वश में कर भी लिया तो उससे भी कठिन है मन को नियंत्रित करना, क्योंकि मन एक समय में संसार की समस्त वस्तुओं में प्रवृत्ति करना चाहता है। संयम का घात करने वाले, संयम रत्न लूटने वाले 28 चोर हैं जो प्रतिसमय आत्मा के कल्याण में साधक को संयम के मार्ग में आगे नहीं बढऩे देते। नरभव की सार्थकता संयम के पालन में ही है, क्योंकि भव-भव के पापों को नष्ट करने में यदि कोई समर्थ है तो वह संयम ही है और छोटा-सा संयम भी जीवन के कल्याण का मार्गदर्शक बन जाता है।
‘संयम पै सुरनाथ जजै हैं’ सुख के सागर में निरंतर लीन वे देवगण भी संयमी के चरणों में नत मस्तक होते हैं। सुर दुर्लभ इस मनुष्य पर्याय को प्राप्त जो जीव संयम को धारण करते हैं उनकी महिमा, उनकी पूजा, उनकी भक्ति करने के लिए सुरगण अपना संपूर्ण वैभव छोड़ इस मनुष्य लोक में अवतरित होते हैं, ऐसी संयम की महिमा है। एक-एक इंद्रीय के विषय में आसक्त जीव असंयम के कारण अपने प्राण तक गंवा देता है लेकिन थोड़े से संयम को धारण करने वाला व्यक्ति भी जगत पूज्य हो जाता है। निर्दोष संयम के पालन के मन, वचन, काय को संयमित करना आवश्यक है।
चार कषायें चतुर्गति के भ्रमण का कारण बन रही हैं क्योंकि क्रोध, मान, माया, लोभ इन चार कषायों को हम नियंत्रित नहीं कर पा रहे हैं और जीव कषाय के तीव्र परिणामों के कारण संयम रूपी रत्न को प्राप्त नहीं कर पाता। इंद्रीय संयम ही प्राणी संयम को प्राप्त करने देता क्योंकि इंद्रियों के विषयों की पूर्ति के लिए ही व्यक्ति को प्राणी असंयम में तत्पर होता है। सुख तो निज आत्मा से ही था जो कि स्वयं से ही प्राप्त होता है, लेकिन व्यक्ति पर में आसक्त होता हुआ संयम से दूर हो जाता है। संयम के लिए सबसे ज्यादा घातक यदि कोई है तो वह स्वयं का प्रमाद है और उस प्रमाद को छोड़कर जो प्रतिसमय इंद्रीय और प्राणी संयम में तत्पर होते हैं उन निग्रंथों के ही उत्तम संयम धर्म होता है।