भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृति कही जाती है। भारतीय संस्कृति वह पावन गंगा है जिसमें दो महान सांस्कृतिक नदियां आकर मिली है- श्रमण और वैदिक। इन दोनों ने मिलकर ही भारतीय संस्कृति का निर्माण किया है। इतिहासकार और पुरातत्ववेत्ता अब इस बात को स्वीकारने लगे हैं कि भारत में वैदिक सभ्यता का जब प्रचार-प्रसार हुआ, उसके पहले यहां जो सभ्यता थी, वह अत्यंत समृद्ध और समुन्नत थी।
इसी सन्दर्भ में डॉ. एम.एल. शर्मा लिखते हैं कि मोहन-जो-दड़ो से प्राप्त मुहर पर जो चित्र अंकित है, वह भगवान ऋषभदेव का है। यह चित्र इस बात का द्योतक है कि आज से पांच हजार साल पूर्व योग साधना भारत में प्रचलित थी। और उसके प्रवर्तक जैन धर्म के आदि तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव थे। सिन्धु निवासी अन्य देवताओं के साथ ऋषभदेव की भी पूजा करते थे।
सन् 1922 में और उसके बाद मोहन-जो-दड़ो और हड़प्पा की खुदाई भारत सरकार की ओर से की गई थी। इन दोनों स्थानों में जिस संस्कृति की खोज हुई, वह सिन्धु घाटी की सभ्यता अथवा हड़प्पा संस्कृति कही जाती है।
भारत सरकार के पुरातत्व विभाग के तत्कालीन डायरेक्टर सर जान मार्शल ने इस सभ्यता के संबंध में लिखा है- पांच हजार वर्ष पूर्व पंजाब और सिन्धु प्रदेश में आर्यों से भी पहले ऐसे लोग रहते थे, जिनकी संस्कृति बहुत उच्च कोटि की थी और अपने समकालीन मेसोपोटामिया तथा मिश्र की संस्कृति से किसी बात में भी कम नहीं थी। हां कई बातें उत्कृष्ट अवश्य कही जा सकती हैं। इन स्थानों पर जो पुरातत्व उपलब्ध हुआ है, उससे तत्कालीन भारतवासियों के रहन-सहन, पहनावा-पोषाक, रीति-रीवाज और धार्मिक विश्वासों पर प्रकाश पड़ता है। इन स्थानों पर यद्यपि कोई देवालय-मन्दिर नहीं मिले हैं, किन्तु वहां पाई गई मुहरों, ताम्रपत्रों, धातु मिट्टी तथा पत्थर की मूर्तियों से उनके धर्म और विश्वास का पता चलता है।
मोहन-जो-दड़ो में कुछ मोहरें ऐसी मिली हैं,जिन पर योग मुद्रा में योगी-मूर्तियां अंकित है। एक मुहर ऐसी भी प्राप्त हुई है, जिसमें एक योगी कायोत्सर्ग मुद्रा (खडग़ासन) में ध्यान लीन हैं। उसके सिर के उपर त्रिशूल है, वृक्ष का एक पत्ता मुख के पास है। योगी के चरणों में एक भक्त करबद्ध नमस्कार कर रहा है। उस भक्त के पीछे वृषभ खड़ा है। वृषभ के उपर वृक्ष है। योगी को वेष्टित किए हुए वल्लरी है। नीचे सामने की ओर सात योगी उसी कायोत्सर्ग मुद्रा में ध्यान मग्न हैं। प्रत्येक के मुख के पास वल्लरी के पत्र लटक रहे हैं। योगी के इस परिवेश और परिकर को आदि तीर्थंकर वृषभदेव के परिप्रेक्ष्य में जैन शास्त्रों के विवरण से तुलना करें तो अत्यन्त समानता के दर्शन होते हैं और कुछ रोचक तथ्य उभर कर सामने आते हैं। आचार्य जिनसेन ने आदि पुराण सर्ग 18 श्लोक 3, 6 और 10 में भगवान की कायोत्सर्ग मुद्रा का विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया है।
आदि पुराण सर्ग 17 श्लोक 253 में वर्णन है- जो भगवान के चरणों की पूजा कर चुके हैं, जिनके दोनों घुटने पृथ्वी पर लगे हुए हैं और जिनके नेत्रों से हर्ष के आंसू निकल रहे हैं, ऐसे सम्राट भरत ने अपने उत्कृष्ट मुकुट में लगे हुए मणियों की किरण रूप स्वच्छ जल के समूह से भगवान के चरण-कमलों का प्रक्षालन करते हुए भक्ति से नम्र हुए अपने मस्तक से उन भगवान के चरणों को नमस्कार किया।
महाकवि अर्हद्दास विरचित ‘पुरुदेव चम्पू’ में भी मिलता है। मोहन-जो-दड़ो में प्राप्त मुहर को सामने रखकर आदि पुराण और पुरुदेव चम्पू के भगवान वृषभदेव सम्बंधी ध्यान विवरण को पढ़ें तो दोनों में ऐसी समानता मिलेगी, मानो इन पुराणकारों ने उक्त मुहर की ही व्याख्या की हो। इसलिए उक्त मुहर और उक्त पौराणिक विवरण से तुलना करके मुहर की व्याख्या इस प्रकार कर सकते हैं। -भगवान वृषभदेव कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े हुए हैं।
कल्पवृक्ष हवा में हिल रहा है और उसका एक पल्लव भगवान के मुख के पास डोल रहा है। उनके सिर पर सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यग्चारित्र यह त्रिरत्न रूप त्रिशूल है। सम्राट भरत भगवान के चरणों में भक्ति से झुककर आनन्दाश्रुओं से उनके चरण प्रक्षालन कर रहे हैं। उनके पीछे वृषभ लांछन है। नीचे सात मुनि भगवान का अनुसरण करके कायोत्सर्ग मुद्रा में ध्यान मग्न हैं। जो चार हजार राजा वृषभदेव के साथ मुनि बने थे, उन्हीं के प्रतीक स्वरूप ये सात मुनि हैं। संभवत: उक्त मुहर की व्याख्या इसके अतिरिक्त दूसरी नहीं हो सकती।
सिन्धु मुहरों में से कुछ मुहरें प्राचीन सिन्धु घाटी में प्रचलित योग पर प्रकाश डालती है, उन मुहरों में देवता खडग़ासन मुद्रा में ध्यान योग में लीन हैं। आश्चर्यजनक रूप से कायोत्सर्ग मुद्रा जैनों से संबन्धित है। यह मुद्रा बैठकर ध्यान करने की न होकर खड़े होकर ध्यान करने की है। मथुरा के कर्जन पुरातत्व संग्रहालय में एक शिलाफलक पर जैन जैन वृषभदेव की कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़ी हुई चार प्रतिमाएं मिलती हैं जो इसा की द्वितीय शताब्दी की निश्चित की गई हैं। मथुरा की यह मुद्रा मूर्ति सं. 12 में प्रतिबिंबित है।
प्रो. चन्दा के विचारों का समर्थन डॉ. प्राणनाथ विद्यालंकार ने भी किया है। वे भी सिन्धु घाटी में मिली इन कायोत्सर्ग प्रतिमाओं को ऋषभदेव की मानते हैं। इन विद्वानों ने सील न. 449 पर जिनेश्वर शब्द भी पढ़ा है। हमारी विनम्र मान्यता है कि सभी ध्यानस्थ प्रतिमाएं जो सिन्धु घाटी में मिली हैं, जैन तीर्थंकरों की है। ध्यानमग्न वीतराग मुद्रा, त्रिशूल और धर्मचक्र, पशु, वृक्ष, और नाग ये सभी जैन कला की अपनी विशेषतायें हैं। विशेषत: कायोत्सर्ग आसन जो जैन श्रमणों द्वारा ध्यान के लिए प्रयुक्त होता है।
विद्वान रामधारी सिंह दिनकर संस्कृति के चार अध्याय पृ. 39 पर इसी बात की पुष्टि करते हुए लिखते हैं – मोहन-जो-दड़ो की खुदाई में योग के प्रमाण मिले हैं और जैन मार्ग के आदि तीर्थंकर ऋषभदेव थे, जिनके साथ योग और वैराग्य की परंपरा उसी प्रकार लिपटी हुई है जैसे कालांतर में यह शिव के साथ संबन्धित थी। इस दृष्टि से कई जैन विद्वानों का यह मानना अतिशयोक्ति युक्त नहीं दिखता कि ऋषभदेव वेदोल्लेखित होने पर भी वेद पूर्व हैं।