उज्जैन की पत्रकारिता के दैदीप्यमान नक्षत्र का अवसान हो गया। असल श्रमजीवी पत्रकार, अक्षर विश्व के साहित्य संपादक, फिल्म समीक्षक, मृदुभाषी, सौम्य, सरल, सहज, सर्वप्रिय और अपनी वाणी से सभी को सुख देने वाले सुखराम सिंह तोमर हमारे बीच नहीं रहे। पूरा जीवन संघर्षों के कंटीले पथ पर प्रवाहमान रहा।
मुफलिसी उनके दामन से लिपट कर बेशक खुश हो गई होगी लेकिन अंदर के सुखराम को हिला नहीं सकी। स्वाभिमानी सुखराम ने अपने सुख के लिए समझौता नहीं किया। जो मिल गया उसी को मुकद्दर समझ लिया। मुकद्दर में जब इतना ही लिखा है तो इतना ही मिलेगा। किसी से कोई शिकवा नहीं, शिकायत नहीं। हर हाल में जीवन जीने की कला सिखाने वाले सुखराम आज की पत्रकारिता में उस झुंड से दूर थे जिन्हें पैसे से मोह है।
चंद रुपयों के लिए अपने ईमान को गिरवी कर किरदार को गिरने नहीं दिया। अखबार की नीति और सिद्धांत को उन्होंने जीवन में उतार रखा था। सामाजिक जीवन में उन्होंने उस मर्यादा का पूरा ख्याल रखा। बाहरी संबंधों को अपने पर कभी हावी नहीं होने दिया। अपने जीवन में उन्होंने न जाने कितने ऑपरेटरों की हिंदी सुधरवा कर उन्हें सब-एडिटर बनवा दिया। हिंदी भी सुधरवाई तो किसी विद्वान की तरह नहीं एक भाई की तरह।
शहर में कौन ऐसा नेता है जो उन्हें नहीं जानता। कौन ऐसा पार्षद है जो उनसे उपकृत न हुआ हो। वह कौन सा कर्मचारी संगठन है जिसकी सुखराम ने सेवा नहीं की। चाहते तो किसी भी मदद ले सकते थे। ऐसे शख्स के लिए कोई इंकार भी नहीं करता। दे देता तो किसी को बताता भी नहीं, लेकिन उन्होंने पूरी जिंदगी ईमान की दौलत, प्यार, मोहब्बत, दुआओं में व्यतीत कर दी। शहर में साहित्यकारों की फौज है। व्यंग्यकारों का समूह है। फिल्म समीक्षकों की लंबी कतार है। सभी सक्षम और आर्थिक रूप से सबल हैं। इन्हीं में से एक सुखराम सिंह तोमर भी थे।
बिनोद मिल की तीसरी पाली में कांडी से दो-दो हाथ करते और समय मिलते ही लिखने बैठ जाते। कौनसी फिल्म कब प्रदर्शित हुई। संगीतकार कौन था? गीतकार कौन था? अभिनेता और अभिनेत्री का मूल नाम क्या है? फिल्मों की किस्सागोई उन्हें रटी हुई थी। समर्थ लोगों की पेटी और अलमारी में महंगे कपड़े रखे होते हैं। उनकी पेटी में अखबारों की कतरनें हैं जो उन्हें आवाज दे रही हैं। तुम न जाने किस जहां में खो गए।
अक्षर विश्व के प्रधान संपादक सुनील जैन को जब सुबह यह खबर मिली तब वे अवाक रह गए। चेहरा फीका हो गया। आंखों से अश्रु की धारा बह निकली। कुछ बोलने की स्थिति में नहीं थे। लगा कि आज उनका अपना कोई था जो आज नहीं रहा। उनकी आंखों से निकले एक-एक आंसू इस बात की गवाही दे रहे थे कि सुखराम उनके कितने निकट थे। कितने प्रिय थे। जब अक्षर विश्व ने उज्जैन की पत्रकारिता में साप्ताहिक के रूप में पहला कदम रखा तब सुखराम ही उनके अनुगामी बने। अक्षर विश्व की यात्रा के सहयात्री बने, हमसफर बने और अंतिम समय तक साहित्य संपादक के रूप में पूरी ईमानदारी से अपने कर्तव्य को निभाते रहे।
अक्षर विश्व को जब भी किसी नेता के अतीत या पार्षद की जानकारी चाहिए होती थी, वे तपाक से बता देते थे, इसने उसे इतने वोटों से हराया था। वे शहर की राजनीति के विकिपीडिया भी थे। अक्षर विश्व के मैनेजिंग एडिटर श्रेय जैन भी आज उदास हैं और दु:खी हैं। उन्होंने भी तोमर जी को कभी यह आभास नहीं होने दिया कि वे हमारे संस्थान के पत्रकार हैं। उन्हें वरिष्ठ और मार्गदर्शक ही माना। इसी प्रेम की डोर में वे इतने लंबे समय से बंधे हुए थे। आज अक्षर विश्व के जिस साथी ने यह बुरी खबर सुनी वह नैराश्य में डूब गया। वे इतनी जल्दी इस संसार से विदा हो जाएंगे यह किसी ने नहीं सोचा था।
मेरा उनका 45 साल पुराना रिश्ता रहा। पारिवारिक संबंध रहे। मुझसे बड़े थे, लेकिन मुझे सम्मान बड़ों सा दिया। मेरे साथ उन्होंने लंबे समय तक काम किया। आजाद गु्रप के वे वरिष्ठ सहयोगी और सर्वप्रिय मित्र थे। साहित्य की कई नवोदित प्रतिभाओं को उन्होंने अक्षर विश्व में स्थान दिया। अपनी जिजिविषा और फक्कड़पन के बादशाह सुखराम सिंह तोमर को अक्षर विश्व परिवार की ओर से विनम्र श्रद्धांजलि।
वह तो बता रहा था कई रोज का सफर
जंजीर खींचकर के मुसाफिर उतर गया
@नरेंद्र सिंह अकेला