Advertisement

अवन्तिकापुरी में लीलापुरुषोत्तम श्रीकृष्ण की अलौकिक लीलाएँ

आज श्रीकृष्ण जन्माष्टमी महोत्सव पर विशेष

Thank you for reading this post, don't forget to subscribe!

Advertisement

एक ओर जहाँ भगवान् श्री रामचन्द्र जी को मर्यादापुरुषोत्तम के रूप में जाना जाता है, वहीं दूसरी ओर भगवान् श्रीकृष्ण जी को लोकसंग्रह हेतु अनेकानेक मंगलमयी लीलाएँ करने वाले लीलापुरुषोत्तम के रूप में जाना जाता है।

भगवान् श्रीकृष्ण का अवन्तिका से किशोर वय से ही अटूट नाता रहा है। सर्वप्रथम वे शिष्य बनकर अग्रज बलराम के साथ यज्ञोपवीत संस्कारोपरान्त अवन्तिका के महर्षि सान्दीपनि आश्रम में विद्याध्ययन हेतु आये। वेदान्तचूड़ामणि श्रील श्रीजीव-गोस्वामिपाद के अनुसार दोनों भाई रेशमी वस्त्र, यज्ञोपवीत, दूर्वानिर्मित मेखला श्रेणी, मृगचर्म धारण किये तथा काष्ठ दण्ड लिये हुए अपने पराक्रम से पैदल ही अवन्तिका पहुँचे। श्रीकृष्ण यद्यपि सर्वज्ञ थे, तथापि उन्होंने जिज्ञासु शिष्य की भांति लीला करते हुए 64 दिन-रात में 14 विद्याएँ और 64 कलाएँ सीख ली।

Advertisement

दूसरे, एक बार जब वे गुरुमाता की आज्ञा से सहपाठी सुदामा के साथ एक घोर जंगल में ईंधन लाने गये तो बेमौसम भयंकर आँधी-पानी आ गया, सूर्यास्त हो गया और सर्वत्र अंधकार छा गया। वह समय प्रलयवत् ही था। वे दोनों सिर पर लकडिय़ों का बोझा उठाये एक-दूसरे का हाथ थामे भटकते फिरे। प्रात:काल में गुरुदेव सान्दीपनि दोनों को जंगल में ढूँढते फिरे तथा सूर्योदय होने पर जब उन्हें कृष्ण-सुदामा मिले तो गुरुदेव ने दोनों को उनके सारे मनोरथ व अभिलाषाएँ पूर्ण होने का आशीर्वाद दिया।

तीसरे, इसी तरह श्रीकृष्ण इस बात से भी बड़े दु:खी थे कि गुरुदेव को नित्यप्रति अवन्तिका से गोमती नदी (लखनऊ) स्नान हेतु योगविद्या द्वारा जाना पड़ता है। श्रीकृष्ण ने योगमाया से तीर चलाकर गोमती का जल यहीं प्रकट कर दिया। उन्होंने गुरुजी से कहा—‘ब्रह्मन्! नदियों में श्रेष्ठ गोमती अब यहीं अवन्तीपुरी में आ गयी है। यज्ञकुण्ड में गोमती और सरस्वती दोनों का समागम हुआ है।Ó आज इसे हम गौतमी कुण्ड नाम से जानते हैं।

Advertisement

चौथे, विद्या पूर्ण होने पर श्रीकृष्ण ने गुरु-दक्षिणा हेतु निवेदन किया। वे गुरुजी की इच्छित वस्तु देने के लिए उत्साहित थे। गुरु सान्दीपनि की इच्छानुसार दोनों भाइयों ने महर्षि सान्दीपनि के मृत पुत्र को संयमनीपुरी से सशरीर लाकर उन्हें सौंप दिया। इस प्रकार महर्षि के गुरुकुल में रहते हुए श्रीकृष्ण ने अनेक लीलाएँ की। गुरु-सुत पुनर्दत्त की एक प्रतिमा महर्षि सान्दीपनि आश्रम, उज्जैन में प्रदर्शित है।

पांचवे, श्रीकृष्ण जब अवन्तिका में विद्याध्ययन कर रहे थे तब उन दिनों यह नगरी राजा सूरसेन की पुत्री महारानी राजाधिदेवी का घर था। राजा जयत्सेन और महारानी की तीन सन्तानें थी– राजकुमार विन्द, अनुविन्द तथा उनकी बहिन मित्रविन्दा। दोनों भाई दुर्योधन के वशवर्ती थे तथा उन्होंने महाभारत के युद्ध में दुर्योधन के पक्ष में अवन्तिका की अक्षौहिणी सेना सहित पाण्डवों से भीषण युद्ध किया तथा खेत रहे। कथा कहती है कि मित्रविंदा के स्वयंवर में जब श्रीकृष्ण अर्जुन के साथ अवन्ति पहुँचे तो भरी सभा में मित्रविन्दा ने श्रीकृष्ण के गले में वरमाला डाल दी। भाइयों के रोकने के पूर्व ही श्रीकृष्ण मित्रविन्दा को रथासीन कर शंखध्वनि करते हुए उसका हरण कर ले गये तथा द्वारका पहुँचकर उससे विवाह किया–

अवन्त्यां राजतनयां मित्रविन्दा मनोहराम्।
स्वयंवरे तां जहार भगवान् रुक्मिणी यथा।।

(गर्गसंहिता/ द्वारकाखण्ड/16.8.16)

मित्रविन्दा श्रीकृष्ण की पाँचवी पटरानी बनी, उनकी अन्य 7 पटरानियां क्रमश: हैं– रुक्मिणी, जाम्बवती, सत्यभामा, कालिन्दी, सत्या, भद्रा और लक्ष्मणा। उज्जैन में भैरवगढ़ मार्ग पर मित्रविंदा धाम में दोनों की मनहर प्रतिमाएं प्रतिष्ठापित हैं।

छठे, निवातकवच आदि दानवों का वध कर दिये जाने पर इन्द्र के कहने पर अर्जुन ने ब्रह्मा द्वारा पूजित सूर्य की दो प्रतिमाएं इन्द्र से प्राप्त की। इन्द्र ने शिप्रा नदी के उत्तरी तट पर केशवार्क की स्थापना करने को कहा। देवर्षि नारद द्वारका पहुँचे तथा भगवान् श्रीकृष्ण को कुशस्थली (अवन्तिका) प्रतिमाओं की स्थापना हेतु लेकर आये। श्रीकृष्ण की शंखध्वनि के उद्घोष के साथ यहाँ अर्जुन ने देववंदित सूर्यविग्रह केशवादित्य और नरादित्य स्थापित किये।

सातवें, भगवती रुक्मिणी की जिज्ञासा शांत करते हुए एक बार भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा कि तीन वर्ष में एक बार मलमास काल आता है। मैं ही इस अधिमास का अधिपति हूँ। महाकालवन में पुरुषोत्तम धाम नाम का एक शुभतीर्थ विराजमान रहता है। श्रीकृष्ण पटरानी रुक्मिणी के साथ अधिकमास में यहाँ आते हैं ।

इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण अवन्तिका को कभी नहीं भूले, हालाँकि यह कहा जाता है कि अन्यत्र भगवान् ने जो स्थान एक बार छोड़ा, वहाँ वे दुबारा कदाचित् गये ही नहीं। – रमेश दीक्षित ( लेखक दैनिक अक्षरविश्व के स्तम्भकार व विशेष संवाददाता हैं )

Related Articles