अक्षरविश्व के लिए पर्युषण पर्व परमुनिश्री सुप्रभसागजी की कलम से’

By AV NEWS

पर्युषण पर्व पर विशेष

उत्तम आर्जव धर्म : दगा किसी का सगा नहीं

‘अक्षरविश्व के लिए पर्युषण पर्व पर मुनिश्री सुप्रभसागजी की कलम से’

पर्युषण महापर्व में दसलक्षण पर्व की शुरुआत हो गई है। इस मौके पर अक्षरविश्व के विशेष आग्रह पर मुनिश्री सुप्रभसागर जी की लेखनी से पर्वराज पर्युषण और दसलक्षण पर्व की विशेष प्रवचन माला प्रकाशित की जा रही है….

जो भाव मन में है, वैस ही उन्हें वचनों से कहना और मन, वचन के अनुरूप काय की परणति होना, इसका ही नाम ऋजुता, सरलता है और जो व्यक्ति अंतरंग बहिरंग से सरलता को धारण करता है उसके ही आर्जव गुण प्रकट होता है। पंचमकाल मे जन्म लेना ही सबसे बड़ी कुटिलता का परिणाम है। जहां-जहां मन में कुछ वचनों में कुछ और काय की परणति कुछ और ही हो रही है कुटिलता इंसान को इंसानियत से दूर कर रही है। हम जैसे नहीं होते वैसे दिखाना चाहते है, जैसा नहीं करते वैसा दूसरों से अपने आपको कहलाना चाहते इसी नाम मायाचारी है और मायाचारी का परिणाम ही मनुष्य गति प्राप्त होने के बाद भी स्त्री पर्याय में जन्म होना है, जो कि दु:ख रूप ही है।

जैसे हाथी के दांत दिखाने के और होते हैं और खाने अन्य ही होते हैं ऐसे ह मायाचारी करने वाले इंसान की परणति हुआ करती है। मायाचारी दु:ख रूप तिर्यंचगति में ही ले जाने वाले होती है। आज का इंसान वास्तविकता से ज्यादा दिखावे में विश्वास करता है, घर में भले ही खाने के लिए कुछ न हो लेकिन प्रदर्शन में कुछ भी कमी नहीं होना चाहिये, ऐसी वर्तमान के व्यक्ति की सोच हो चुकी है और यही सोच उसे आर्जव धर्म से दूर कर रही है। व्यक्ति की सरलता, सहजता सर्वत्र प्रशंसनीय होती है और कुटिलता, मायाचारी, धोखाधड़ी, दगाबाजी की हमेशा ही निंदा की जाती है।

लोक में कहा भी जाता है कि ”दगा किसी का सगा नही, नहीं किया तो कर देखो। जिसने, जिससे दगा किया उजड़ा घर देखो।’दगाबाजी, धोखाधड़ी करने वाला व्यक्ति कभी सुख-शांति का जीवन जी ही नहीं सकता। ठगने वाला हमेशा यही सोचता है कि मैंने सामने वाले को ठग लिया, उसको धोखा दे दिया लेकिन सामने वाला चाहे ठगा जाय या न ठगा जाय पर तुम अपने सरल भावों से ठगे ही जा चुके हो। जिनका अंतर, बाहर का जीवन एकरुपता को प्राप्त हो चुका है, जो सरलता, सहजता, संवेदनशीलता की जीवंत मूर्ति है ऐसे निग्र्रंथ मुनिराज उत्तम आर्जव धर्म के धारक होते हैं। आचार्यों ने कहा भी है कि-

मोतूण कुडिल भावं, णिम्मल
हिदयण चरदि जो समणो।
अज्जव धम्मं तइयो, तस्स
दुसंभव दिणियमेण।।वा.अ.।।

जो मुनि कुटिल भावों को छोड़कर निर्मल हृदय से आचरण करता है, उसके पास नियम से उत्तम आर्जव धर्म होता है। मुनिम सम मन की निर्मलता पाने वाला मन को सरल बनाकर आर्जव गुण का अवश्य ही प्राप्त करता है। संसार में बालकवत सरला और मोक्ष मार्ग में साधु समान सरलता को जो निश्छल भावों से ग्रहण कर लेता है, उसका संसार प्रयाण ही रह जाता है।

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