गुरुद्वारा गुरुनानक घाट: एक नया सिख तीर्थ

By AV NEWS

गुरुनानक जयंती पर विशेष

डा. पिलकेन्द्र अरोरा:मध्यप्रदेश के लिए 2 जून 2019 का दिन बड़ा महत्वपूर्ण था जब धर्म और संस्कृति के नगर उज्जैन में गुरूद्वारा, गुरूनानक घाट के रूप में श्रद्धा, भक्ति व आस्था के एक नए राष्ट्रीय केन्द्र का संगतार्पण (लोकार्पण) हुआ। गुरूद्वारा शिप्रा नदी के उस तट पर निर्मित हुआ है जो 15वीं शताब्दी में सिख पंथ स्ंास्थापक श्री गुरूनानक देव महाराज का की अमृत- बाणी (साहित्य) से धन्य हुआ था।

वस्तुत: श्री गुरूनानक देव के आविर्भाव (वर्ष 1469) के समय धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक स्थितियां अत्यंत विषम थीं। धर्म में जहां ढोंग, पाखंड और आडम्बर व्याप्त था, वहां भारतीय समाज जात-पात, ऊंच-नीच के भेदभाव से ग्रस्त था और जनसामान्य तत्कालीन क्रूर शासकों की अनीति व अन्यायपूर्ण नीति से पीडि़त। तब गुरूदेव ने विश्व-शांति, विश्व-प्रेम और विश्व-कल्याण के लिए एक ओंकार (एकेश्वरवाद) का संदेश दिया और कहा कि ईश्वर एक है और हम सभी उसकी संतान हैं। शांति और सदभावना के संदेश के प्रचार-प्रसार हेतु गुरूदेव ने जीवन में चार धर्म-यात्राएं कीं। चूंकि तत्कालीन परिस्थितियों से चिंतित व उदास होकर ये यात्राएं की गईं, इस कारण इन यात्राओं को ‘गुरूनानक देव की उदासियांÓ कहा गया है।

पूर्वी क्षेत्रों की पहली उदासी (यात्रा ) के बाद दक्षिण की ओर दूसरी उदासी (वर्ष 1506-1513 -पाीपूपापण्वतह) में राजस्थान से श्रीलंका की यात्रा में मई, वर्ष 1511 में गुरूदेव का उज्जैन शुभ-आगमन हुआ। उस समय उज्जैन का नाम अवंतिका और पुण्यसलिला शिप्रा का नाम अवंती था। तब शिप्रा (अवंती) के पावन तट पर योगी भर्तृहरि के शिष्यों से गुरू महाराज का सत्संग हुआ।

इमली के जिस विशाल वृक्ष के नीचे यह सत्संग हुआ वह आज 508 वर्ष बाद भी इस ऐतिहासिक घटना का साक्षी है। ज्ञातव्य है योगी भर्तृहरि उज्जयिनी के सम्राट विक्रमादित्य के अग्रज थे और स्वयं राजा थे, पर जीवन से वैराग्य उत्पन्न होने पर राजा से योगी भरथरी बन गए थे। (हालांकि इतिहासकार एकमत नहीं हैं कि सत्संग भत्र्हरि से हुआ अथवा उनके शिष्यों से) पर महत्वपूर्ण है वह संवाद जिसमें गुरूदेव ने मोक्ष और ज्ञान संबंधी कई प्रश्नों के उत्तर में तीन श्लोकों का उच्चारण किया। ये पावन ष्लोक श्री गुरू ग्रंथ साहिब के अंग (पृष्ठ) 223 और 411 में सुशोभित हैं और सम्पूर्ण मानवता का पथ प्रशस्त कर रहे हैं।

अधिआतम करम करे ता साचा।।मुकति भेदु किआ जाणै काचा।।
ऐसा जोगी जुगति बीचारै।। पंच मारि साचु उरि धारै ।।

-जो मनुष्य आध्यात्मिक कर्म करता है वही सच्चा मनुष्य है। झूठा मनुष्य कभी भी मुक्ति के रहस्य को नहीं समझ सकता। वास्तविक योगी वहीं है जो योग की सही युक्ति का विचार करता हैं। सच्चा योगी मन में उत्पन्न होने वाले पांच विकारों (काम, क्रोध, मोह, माया और लोभ) का अंत करता है, और सत्य रूपी ईश्वर को सदैव अपने ह्रदय में बसाता है।
खिमा गहीं ब्रतु सील संतोखं।। रोग न बिआपै ना जम दोखं।।

मुकत भए प्रभ रूप न रेखं।।
-क्षमा करने का स्वभाव ही मेरे लिए व्रत, उत्तम आचरण और संतोष है। मुझे न किसी रोग का दुख है और न ही मुत्यु का। मैं निराकार ईश्वर में लीन होकर ही मुक्त हो गया हूं। इस सबद का केन्द्रीय भाव यह है कि जिन मनुष्यों ने क्षमा, शील ओर संतोष का व्रत धारण कर लिया है उन्हें न रोग व्याप्त होता हे और मृत्यु का दुख होता है और वे मुक्ति प्राप्त कर साक्षात् ईश्वर स्वरूप हो जाते हैं।

उतरि अवघटि सरवरि न्हावै।। बकै न बोलै हरि गुण गावै।।
जलु आकासी सुंनि समावै।।
रसु सतु झोलि महा रसु पावै।।

-मनुष्य को पाप की घाटी से उतर कर, सत्संग के पुण्य -सरोवर में स्नान करना चाहिए। व्यर्थ प्रलाप न कर ईश्वर का गुणगान करना चाहिए। जिस प्रकार जल आकाश में समाया रहता है उसी भांति योगी को प्रभु में लीन रहना चाहिए और सत्य का चिंतन करते हुए अमृत रूपी महारस का पान करना चाहिए।यहां उल्लेखनीय है कि इस ऐतिहासिक स्थान की खोज उदासीन अखाड़े के ब्रह्मलीन महामंडलेष्वर स्वामी ईश्वरदास जी ने की और विशाल गुरूद्वारे का निर्माण सिख पंथ की सर्वोंच्च संस्था शिरोमणि गुरूद्वारा प्रबंधक कमेटी स्वर्णमंदिर, अमृतसर द्वारा किया गया है।

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