आज मेरा दर्द पिघलता चला गया।
आंसुओं के साथ बिखरता
चला गया।
वैसे तो बंदिशें थीं, ग़मे-दिल
दबा रहे।
हमदर्द रूबरू था, निकलता
चला गया।
दो रोज़ रुका था, कभ ख़ुशियों
का कारवां,
वो वक़्त भी हाथों से फिसलता चला गया।
मिलने का दौर आया तो, जुड़ते
गये हम भी,
हर शख़्स धीरे धीरे, बिछड़ता
चला गया।
दर्दो-अलम की रौनकें, अब हैं शबाब पर,
ये ज़ख्म दिल का और, निखरता चला गया।
साकित ने न सोचा था, ये
मजबूरियां कभी,
वो वार करेंगी के,सिहरता चला गया।
-वी.एस. गेहलोत, साकित