व्यंग्य :गाड़ी बुला रही है…

By AV NEWS

गाड़ी बुला रही है, सीटी बजा रही है गाने की ये पंक्तियां सुनकर ही मन इतना प्रफुल्लित हो जाता था कि सहज रूप से कहीं घूमने के लिए किसी न किसी बहाने सफर का कार्यक्रम बना ही लेते थे। उस दौर में ऑनलाइन रिजर्वेशन की सुविधा उपलब्ध नहीं थी फिर भी रिजर्वेशन काउंटर पर कतार में लगकर मैन्युअल रिजर्वेशन कराने का भी अपना एक अलग ही आनंद था। आरक्षण की पंक्ति में कुछ उत्साहीलाल ऐसे भी हुआ करते थे जो किसी चलते-फिरते पूछताछ कार्यालय से कम नहीं हुआ करते थे। आरक्षण फॉर्म भरना, समय सारणी और रेलों के परिचालन की थोड़ी बहुत जानकारी रखने वाले ये उत्साहीलाल अन्य यात्रियों को अपना ज्ञान बांटते हुए देखे जा सकते थे। ज्ञान वितरण के इस कार्यक्रम में मैं भी पीछे रहना पसंद नहीं करता था।

वस्तुत: यात्राओं का उद्देश्य मात्र भ्रमण नहीं बल्कि संबंधों के निर्वाह के लिए भी होता है। संबंधों के निर्वाह की जब बात आती है तो सोचना पड़ता है कि कौन सा रिश्ता सबसे प्रगाढ़ और महत्वपूर्ण है? आम तौर पर यह कहा जाता है कि सारी दुनिया एक तरफ और ___! इच्छापूर्वक या अनिच्छापूर्वक या फिर धर्मपत्नी के दबाव के कारण वर्ष भर में किसी न किसी कार्य के संदर्भ में औसतन तीन से चार बार जनकपुरी जाना ही पड़ता था।

रिजर्वेशन हो जाने के बाद यात्रा से संबंधित सभी तैयारियां शुरू हो जाती थी। जनकपुरी तथा अन्य निकटतम रिश्तेदारों के लिए स्थानीय लोकप्रिय व रुचिकर व्यंजन किसके लिए कितनी मात्रा में ले जाना है इसकी व्यवस्था भी करनी होती थी। रेल की पेंट्री कार या स्टेशनों के रिफ्रेशमेंट स्टाल पर मिलने वाली खाद्य सामग्री कम पसंद थी इसलिए घर से ही पर्याप्त भोजन व अन्य खाद्य सामग्री साथ में रख लिया करते थे। अधिकांश रेल यात्राओं में सहयात्री अच्छे और मिलनसार स्वभाव के मिल जाते थे। सहयात्रियों के साथ हंसी मजाक, गपशप, इधर उधर की चर्चाओं के साथ भोजन करना कुल मिलाकर एक अनूठा पारिवारिक वातावरण बनाकर मन मस्तिष्क को प्रफुल्लित कर देता था। यात्रा आरंभ करने से अपने गंतव्य तक पहुंच जाने में आनंद की अनुभूति होती थी। हर यात्रा अपनी मधुर स्मृतियां छोड़ जाती थी।

ऐसी ही एक यात्रा के दौरान आज से 47 वर्ष पूर्व एक सहयात्री सफर में ऐसा मिला जो जीवन का हमसफऱ बन गया। यात्राओं का यह सिलसिला तो चलता ही रहा है किंतु सेवानिवृत्ति के बाद की यात्राओं की बात ही कुछ और होती है। न ऑफीस जाने की चिंता और न ही घर परिवार की विशेष जिम्मेदारी। जहां चाहे जाए, जितने दिन चाहे ठहरे, घूमे फिरे, आनंद ले…..फुर्सत ही फुर्सत है। अतीत की ये मधुर स्मृतियां आज भी मन मस्तिष्क को प्रफुल्लित कर देती है किंतु ऐसा लगने लगा है कि अब ये स्मृतियां मात्र स्मृति बनकर ही रह जाएंगी। कोरोना रूपी जबरदस्ती आ धमके बिन बुलाए मेहमान ने हाल फिलहाल यात्रा और भ्रमण की सारी आशाओं पर तुषारापात कर दिया है। हाल फिलहाल तो यही माना जा रहा है कि रेल परिचालनशुरू हो जाने के बाद वरिष्ठ नागरिक रेल यात्रा नहीं कर पाएंगे।

घोर अन्याय हो गया है यह तो वरिष्ठ नागरिकों के साथ। पूरा जीवन नौकरी चाकरी, घर गृहस्थी, समाज सेवा में खपा दिया और अब जीवन के इस मोड़ पर आकर कुछ समय आनंद और आमोद प्रमोद में बिताना चाहते थे तो कोरोनावायरस के कारण सरकार ने भी कह दिया कि यात्रा करो ना। आने वाले समय में एक न एक दिन तो कोरोना से भी मुक्ति मिलेगी ही किंतु हाल फिलहाल मेरा भारत सरकार और रेल मंत्रालय से अनुरोध है कि भले ही वरिष्ठ नागरिकों को आरक्षण में प्राथमिकता तथा किराए में मिल रही छूट न दे किंतु यात्राएं प्रतिबंधित नहीं करें। और है कोरोना देव! बहुत अधिक आवभगत कर चुके हैं आपकी। आतिथ्य की भी एक सीमा होती है जिसे हमने पार कर दिया है। अब आपसे यही आग्रह है की जहां से आए हो वही लौट जाओ, अपने अस्तित्व को समाप्त कर दो, हमारा जीवन सामान्य रफ्तार से पटरी पर आने दो ताकि फिर से यह आवाज सुनाई दे…गाड़ी बुला रही है सीटी बजा रही रही है।

-रमेशचंद्र कर्नावट

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