Advertisement

सैनिक देश और धर्मगुरु समाज की रक्षा करें

विशुद्ध सागरजी ने धर्म का मर्म समझाया

Thank you for reading this post, don't forget to subscribe!

Advertisement

उज्जैन। अज्ञानता ही अनर्थ की जड़ है। धर्म भी जानकर करना चाहिए, धर्म के नाम पर हिंसक क्रिया नहीं करना चाहिए। सच्चे धर्म के मर्म को समझना चाहिए, हिंसा में धर्म नहीं, असत्य में धर्म नहीं, चोरी में धर्म नहीं, कुशील में धर्म नहीं, परिग्रह में धर्म नहीं, क्रोध मान माया लोभ में धर्म नहीं है। अन्याय, अनीति, आतंक में किंचित भी धर्म नहीं हो सकता है। दुख का संपूर्ण कारण अधर्म ही हैं। धर्मात्मा बनो पर धर्मांध मत बनो। धर्म के नाम पर अनर्थ मत करो, पहले धर्म को जानो फिर मानो, पथ परंपरा संप्रदायों में धर्म नहीं विश्भमवादों में शांति नहीं।

यह बात पट्टाचार्य विशुद्ध सागरजी ने धर्म सभा को संबोधित करते हुए कही। भारत पंड्या एवं गौरव लुहाडिय़ा ने बताया कि आचार्यश्री का पाद प्रक्षालन पवन सेठी परिवार ने किया। धर्म सभा का संचालन प्रदीप झांझरी ने किया। इस दौरान जयसिंहपुरा के कार्यक्रम की जानकारी अनिल गंगवाल ने दी। आचार्यश्री ने धर्मांधों को समझाते हुए कहा कि जो स्व पर, जगत के संपूर्ण प्राणियों को सूखकर हो कल्याणकारी हो आनंद पूर्ण हो वही सच्चा धर्म है। जो सुख दे सुख की प्राप्ति कारण वही सच्चा और अच्छा धर्म हो सकता है। धर्म पक्षातित, पंथातित होता है।

Advertisement

अहिंसा धर्म है, सत्य धर्म है, अचौर्य धर्म है, ब्रह्मचर्य धर्म है, अपरिग्रह धर्म है। क्षमा भाव, विनम्रता, विवेक, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य, दया, करुणा धर्म रूप हैं। आत्म कल्याण के लिए की गई साधना ही धर्म है, प्राणी मात्र का कल्याण हो, अज्ञानता घटे, विशुद्धि बड़े यही धर्म का मार्ग है। जो उत्तम सुख प्रदान करें वही धर्म है। आत्म कल्याण की दृष्टि ही धर्म है।
व्यवस्था मत बनाओ व्यवस्थित जियो

संसार में विवेकी ज्ञानियों की संख्या अत्यंत अल्प है। सत्य को जानने वाले न्यून है सत्य चरण करने वाले उससे भी कम है। व्यक्ति को दूसरों को ज्ञान देने के पहले स्वयं व्यवस्थित जीना चाहिए। व्यवस्था मत बनाओ व्यवस्थित जीवन जियो, यदि देश के सभी नागरिक स्वयं ही व्यवस्थित अनुशासित जीवन जिए तो व्यवस्था स्वयंमेव ही बन जाएगी, फिर किसी को व्यवस्था बनाना नहीं पड़ेगा। वस्तु व्यवस्था स्वयं में ही व्यवस्थित है, व्यक्ति को अपनी मानसिकता को व्यवस्थित करने की आवश्यकता है।

Advertisement

सम्राट, सैनिक और संत
राजा और सैनिक देश की शत्रुओं से रक्षा करें और साधु संत युवाओं को नैतिक पतन से बचाकर देश व धर्म की रक्षा में संलग्न करें। युवा शक्ति ही देश व धर्म उत्थान में सहायक है। धर्म के बिना शासन नहीं चल सकता और श्रेष्ठ शासन व सजग सैनिकों के बिना देश रक्षा संभव नहीं है। संत, सैनिक एवं सम्राट का गहरा संबंध है। संतों का आशीष, सम्राट की बुद्धि और सैनिकों की जागरूकता देश एवं धर्म को समृद्ध करते हैं।

प्रोत्साहन, प्रशंसा, पुरस्कार से उत्कर्ष
सर्वोत्कर्ष के लिए हमें गुणीयों की प्रशंसा करना चाहिए। छोटे-छोटे बच्चों को प्रोत्साहित करना चाहिए। युवाओं के श्रेष्ठ कार्यों की प्रशंसा करना चाहिए। योग्यता अनुसार सेवाओं को पुरस्कार भी देना चाहिए। प्रशंसा, प्रोत्साहन, पुरस्कार एवं सत्कार से नवीन चेतना का संचार होता है। उमंग उत्साह वर्धन होता है जिससे कार्य की गति बढ़ती है परिणाम स्वरूप उत्कर्ष प्राप्त होता है।
विशुद्ध का हास ही अधर्म: कसाय की एक कनिका भी साधक को गिरा देती है। वाहन चालक चूका तो दुर्घटना घट जाएगी और साधक चूका तो अधोपतन हो जाएगा। विशुद्ध भावों का हास ही कष्टकारी है, विशुद्ध ही रक्षा करो, अशुद्ध से बचो, अल्प अशुद्धि भी सिद्धि में बाधक है। विशुद्ध परिणामों से ही शांति संभव है।

Related Articles