पूजनात्स्पर्शनाद्वापि कीत्र्तनाच्छवणात्तथा।
ऊं कारेश्वर देवस्थनरा: स्युर्मुक्तिभाजना:।।
(अर्थात्- इस लिंग की पूजा, स्पर्श, गुण कीर्तन, उनका गुण श्रवण करने से मुक्ति मिलती है।)
यह मंदिर खटीकवाड़ा में बोहरा बहुल क्षेत्र में गलियों में भीतरी भाग में स्थित है। मंदिर भवन के चारों ओर पर्याप्त खुला स्थान है जिस पर रैलिंग लगे हैं। पूर्व की ओर ४ फीट ऊंचा प्रवेश द्वार है जिस पर चैनल लगी है। करीब ८० फीट आकार के गर्भगृह में ३ फीट चौड़ी पीतल जलाधारी पर नाग, फूल-पत्तियां, सूर्य, चंद्र उत्कीर्ण हैं। जिसके मध्य श्यामवर्ण प्रस्तर का ५ इंच ऊंचा ओंकारेश्वर लिंग प्रतिष्ठित है। बायें से दीवारों पर क्रमश: गणेशजी, सामने पार्वती तथा दायें कार्तिकेय की संगमरमर प्रतिमाएं स्थापित हैं। जलहरी तांबे की है। फर्श व दीवारें संगमरमर की हैं, जबकि छत पर टाइल्स की टुकडिय़ों की सुंदर पच्चीकारी दर्शनीय है। बाहर आसन पर नंदी की काले प्रस्तर की प्रतिमा विराजित है।
लिंग माहात्म्य की कथा- महादेव देवी पार्वती से कहते हैं कि पूर्व प्राकृत में मैंने कपिलाकृति पुरुष की सृष्टि कर उसे अपनी आत्मा को विभक्त करने का कहा। मेरी कृपा से उसकी देह भेद करके त्रिवर्ण स्वर रूपी (अ-ऊ-म) चतुर्वग फलदाता ऋक्- यजु: तथा साम नामक ब्रह्मा-विष्णु-शिवात्मक ओंकार आविर्भूव हो गया।
ओंकार से वषट्कार एवं देवी गायत्री भी उसके पाश्र्व में स्थित हो गई। तब मेरे कहने पर दोनों ने सृष्टि का प्रवर्तन किया। भगवान ओंकार ही कल्पांत होने पर समस्त भूत समूह का सृजन करते हैं। ये ही समस्त जगत की सृष्टि करते हैं। तदनंतर ओंकार ने मुझसे कहा कि मैंने आपकी कृपा से सृष्टि की रचना कर दी। अब आप मुझे वह उत्तम स्थान दीजिए जिससे मेरी कीर्ति अक्षय हो सके। वहां शूलेश्वर के पास ओंकारेश्वर नामक लिंग तुम्हारे नाम से प्रसिद्ध होगा। वहां पहुंचकर ओंकार उसी लिंग में लयीभूत हो गया।
फलश्रुति- महादेव देवी से कहते हैं कि सहस्र युगादि काल, सैकड़ों व्यतीपात, हजारों अयन का जो पुण्य कहा गया है, उससे अधिक पुण्य ओंकारेश्वर के दर्शन से मिलता है। चारों वेदों के अध्ययन, यावत् जीवन ब्रह्मचर्य तथा अहिंसा के फल से भी अधिक पुण्य इस लिंग के दर्शन से मिलता है।