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63/84 महादेव : श्री धुन: साहस्रेश्वर महादेव मंदिर

तीर्थानां च यथा गड्ग रक्षिता योधसन्तमे:।
तथास्यं रक्षको देवो नाम्ना धनु: सहस्रक:।।

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तत्र गड्गदितीर्थानि विद्यन्ते विविधानि च।
सुरहस्यातिपुण्यानि सद्य: पापहराणि च।।

(अर्थात- जैसे सभी तीर्थों में गंगा, सेनानियों में राजा श्रेष्ठ होता है, तदनुरूप सभी लिगों में धनु साहस्रेश्वर लिंग की स्थिति है। सभी गुप्त, पुण्यंप्रद, सद्य: पापनाशक गंगा आदि तीर्थ इस लिंग में विराजमान है।)

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यह मंदिर नगर की पुरानी बस्ती भेरूनाला के समीप मुस्लिम बहुल क्षेत्र वृन्दावनपुरा में स्थित है। कई अन्य 84 महादेव मंदिरों की तुलना में इसके आसपास चारों तरफ खुलापन है। प्राचीन प्रस्तर स्तम्भों की चौखट पर बाहर स्टील का द्वार लगा है। करीब 2 फीट पीतल की जलाधारी के मध्य 8 इंच ऊंचा शिवलिंग है जिस पर तांबे का नाग छाया किये है। आयुध त्रिशूल गड़ा है। दोनों समय आरती के लिए एक ओर नगाड़े व भक्त भी रखे हैं। मार्बल के नंदी पास ही स्थापित है। गर्भगृह में बायं से पहले पार्वती व सामने गण्ेाश की मूर्तियां हैं, कार्तिकेय नहीं है। मुख्य द्वारा के बाएं नीम व पीपल के संयुक्त वृक्ष हैं।

लिंग माहात्म्य की कथा-राजा विदूरथ आखेट पर जाते हुए पृथ्वी में एक बड़ा गत्र्त देखकर आश्चर्यित हुए। एक ब्राह्मण ने बताया कि रसातल में कुंभज नामक दैत्य रहता है, उसी ने सर्वत्र उपद्रव मचा रखा है। तदनन्तर एक बार इस दैत्य ने राजकन्या मुदावती का हरण कर लिया है। विदूरथ दैत्य ने दोनों पुत्रों को दैत्य के वध की आज्ञा दी। युद्ध में उस दैत्य ने राजपुत्रों को बंदी बना लिया।

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उसी समय सप्रकल्पजीवी महामुनि मार्कण्डेय ने राजा की यह स्थिति देखकर उसे ढाढस बंधाया तथा एक लिंग विशेष की आराधना कर सहस्र धनुष के समान मूषलनाशक धनुष प्राप्त कर दैत्य का वध करने का कहा। राजा विदूरथ की आराधना से उसे लिंग ने मूषलास्त्र निवारक धनुष प्रदान किया। उसे लेकर विदूरथ उसी गर्त से पाताल पहुंचे तथा युद्ध में दैत्य को परास्त कर दोनों पुत्रों तथा रानी मुदावती का उद्धार किया। यह लिंग धनु: साहस्रेश्वर नाम से प्रसिद्ध हुआ।

फलश्रुति- इस लिंग का जो व्यक्ति भक्तिभाव से पूजन करता है, उसके सभी शत्रु क्षयीभूत हो जाते है। इसका जो त्रिकाल पूजन करता है, वह कदोपि नरकगामी नहीं होत। इस लिंग की ख्याति शत्रुक्षयकारी धनु: साहस्रेश्वर लिंग के रूप में लोक व्याप्त है

लेखक – रमेश दीक्षित

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