66/84 महादेव : श्री जल्पेश्वर महादेव मंदिर

न संसारभयं तेषां दस्युतो नैव राजत:।
न भूतग्रहरोगेŸयों भयमस्तु कदाचन।।
शिवमस्तुसदा तेषां येषां त्वैदर्शनंगत:।।

(अर्थात- जो यहां इस लिंग का दर्शन करेगा, उसे संसारभय, दस्तयुभय, राजभय, भूत-ग्रह-रोगभय कदापि नहकीं होगा तथा सर्वदा उसका मंगल होता रहेगा।)

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यह मंदिर शिप्रा नदी के बड़े पुल के समानान्तर सिंहस्थ महापर्व वि.सं. 2073 में नवनिर्मित पुल से रणजीत हनुमान मंदिर मार्ग हेतु दायें उत्तरकर कुछ ही दूरी पर दायें स्थ्ज्ञित सोमतीर्थ व शिप्रा नदी के मध्य स्थित है। मूल मंदिर के चारों ओर उपलब्ध सुविस्तृत क्षेत्र के बीच इसका 5 फीट ऊंचा प्रवेश द्वार पूर्वाभिमुख है।

करीब 65 वर्गफीट के गर्भगृह में 30 इंच चौड़ी पीतल की 2 शंख तथा सूर्य व चन्द्र की आकृतियों से उत्कीर्णित जलाधारी के मध्य आधार पर गोलाकार तथा ऊपरी सतह पर समतल ङ्क्षकतु किनारों पर नीचे की ओर गोलाई लाता हुआ काले श्याम वर्ण पाषाण का करीब 9 इंच ऊंचा लिंग प्रतिष्ठित है। दीवारों पर बायें से गणेश सामने मध्य में पार्वती तथा दायें तरफ में सभी एक-एक फीट ऊंची मार्बल की सुंदर प्रतिमाएं स्थापित है। बाहर काले पाषण की ढ़ाई फीट लम्बी प्राचीन कला की प्रतीक नंदी प्रतिमा स्थापित है।

मंदिर के बाई ओर नल-नील वीर हनुमान जी की द्रूूत गति से चलती हुई मुद्रा में 9 फीट ऊंची आकर्षक मुद्रा युक्त मूर्ति वाला हनुमान मंदिर विद्यमान है। हनुमानजी की प्रतिमा के ऊपर एक वृहदाकजी श्री राम प:चायतन की रामचाकर हनुमान सहित पुरानी अत्याकर्षक पेंटिंग लगाई है।

लिंग माहात्म्या की कथा-

पूर्वकाल में जल्प नामक पृथ्वी का राजा अपने 5 पुत्रों को पृथक-पृथक राज्यों सहित राज्य देकर वन को चला गया था। मध्यदेश में विक्रांत नाम पुत्र का राज्य था, उसके मंत्री ने उसे उकसाया कि यह पृथ्वी समग्र रूप से जिसकी है, वहीं राजा है। जैसे एक सांप को दूसरा सांप खा जाता है वैसे ही राजा सदा भूमि अर्जित करे। राज्य के लाभार्थ भाई का वध भाई करता आया है।

यह शाश्वत धर्म है। मंत्री की कूटनीति सुनकर राजा विक्रांत ने सम्मति प्रदान की। मंत्री ने पुरोहित नियुक्त कर अथर्वण कर्म शुरू किया, कृत्याएं प्रकट हुई तथा भृत्य के साथ पांचों भाइयों का ग्रास कर लिया। वनवासी राजा जल्प को जब यह समाचार मिला तो उसने वन में महर्षि वशिष्ठ से इस घटना का कारण पूछा। महर्षि से सब वृत्तांत सुनकर स्वयं को ही दोषी माना इस विनाश का। राजा ने उनसे एक अवियोग कर तथा सघ:पापहर लिंग का संधान पूछा। तब राजा महाकाल वन पहुंचा। महर्षि के आदेश से तथा वहां एक अनाद्य लिंग का दर्शन किया तथा समाधियुक्त होकर पूजन किया।

लिंग से उत्पन्न राणी ने कहा तुम पातकी तथा पुत्रादि के मरण का कारण नहीं हो, वे अपने कर्मविपाक से यमपुरी गए हैं। लिंग ने प्रसन्न होकर राजा जल्प को दो वर मांगने पर दिए। 1 संसार में मेरा पुनर्जन्म ना हो 2 यह लिंग मेरे नाम से प्रसिद्ध हो।

फलश्रुति-

जो यहां आपका दर्शन करेगा उसे कदापि पुत्र तथा धन का वियोग नहीं होगा। जो आपकी शरण लेगा उसका मनुष्य लोक धन्य होगा। समस्त तीर्थों के स्नान का फल मनुष्य को आपके दर्शन से ही अधिक प्राप्त हो जाएगा।

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