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71/84 महादेव : श्री प्रयागेश्वर महादेव

येपश्यन्ति चतुद्र्दष्यामष्टम्यां च विशेषत:।
भक्त्या च नियमंकृत्वाप्रयागेश्वरसंज्ञकम्।।

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कलास्तिस्त्रो भविष्यन्ति लिंगेऽस्मिन्मोक्षदे शुभे।
गंगा च यमुना प्राची सर्वपातकनाशिनी।।

(अर्थात्- जो (मनुष्य) चतुर्दशी तथा अमावस्या तिथि पर नियम के साथ प्रयागेश्वर के दर्शन करते हैं, कल्पकोटि काल में भी उनका पुनर्जन्म नहीं होता। यह लिंग भोग तथा मोक्षप्रद है।)

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यह मंदिर श्री प्रयागेश्वर महादेव मंदिर (क्रमांक 58/84) से भिन्न है। वस्तुत: इसी नाम के एक और मंदिर का विवरण हम शनिवार दि. 10 अगस्त के अंक में पृष्ठ 6 पर प्रकाशित कर चुके हैं। क्र. 71 पर सूचीबद्ध यह मंदिर मां हरसिद्धि दरवाजे पर लोकपालेश्वर मंदिर के पास स्थित है।

मंदिर के गर्भगृह में जो करीब 40 वर्गफीट आकार का है। पीतल की करीब 2 फीट चौड़ी जलाधारी के मध्य 5 इंच ऊंचा प्रयागेश्वर महादेव लिंग प्रतिष्ठित है। जलाधारी पर सूर्य व चंद्र उत्कीर्ण हैं। दीवारों पर क्रमश: गणेश व पार्वती की प्रतिमाएं हैं किंतु कार्तिकेय की नहीं है। सामने बाएं कोने में नाग देवता की 2 फीट ऊंची मूर्ति स्थापित है। वाहन नंदी बाहर विराजित हंै।

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लिंग के माहात्म्य की कथा- महादेव देवी पार्वती को कथा सुनाते है कि पूर्व के द्वापर युग में वैवस्वत मनु के अधिकार काल में हस्तीनापुर में सर्वशास्त्र पारंगत एवं महाबली राजा शांतनु ने अनेक वन्य जीवों का आखेट में वध कर दिया तथा वन में ही एक अत्यन्त सुंदर रमणी को देख रोमांचित हो गये। वह रमणी भी राजा के प्रति आकृष्ट हो गई। राजा ने उससे उनकी पत्नी बनने का प्रस्ताव किया, रमणी ने इस शर्त पर हां कर दी कि राजा उसके किसी भी अप्रिय आचरण का निषेध नहीं करेंगे। यह रमणी वस्तुत: दिव्य रूपा देवी गंगा त्रिपथगा ही थी।

रतितत्पर राजा से गंगा को आठ पुत्र हुए जिन्हें वह उनसे मुक्ति हेतु जल में फेंकती रही। अष्टम पुत्र का वध न करने के राजा के आग्रह को गंगा ने मान लिया। उसके अष्ट पुत्र महाबली अष्टवसु हैं। विष्णुमाया से मोहित होकर वह मानुषी की तरह रुदन करने लगी।

अपने पुत्रधातिनी होने पर विलाप करते हुए वह भूलुण्ठित होकर मूच्र्छित हो गई। इसी समय देवर्षि नारद ने वहाँ पहुंचकर गंगा के विलाप का कारण पूछा। गंगा ने सारा वृतान्त सुनाया, तब नारद ने उसको उत्तम क्षेत्र अवंति बताया जहां गंगा की सखी शिप्रा विराजमान है जिसके तट पर एक शुभ्र लिंग के दर्शन कर आप कृतार्थ हों। गंगा ने उस लिंग की भक्तिभाव से पूजा की, यमुना भी वहाँ आकर उससे मिल गई। देवर्षि ने कहा कि प्रयाग भी महाकालवन चला गया है। इन्द्र आदि देवगण ने यहांआकर पावन नदियों की स्तुति की।

फलश्रुति- यहां आकर जो कोई प्रयागेश्वर का दर्शन करता है, वह सर्वपातक वर्जित होकर कृतार्थ तथा माता और पिता दोनों के कुल का उद्धारक हो जाता है। गंगा, प्रयाग, देवदारुवन, नैमिष, पुष्कर, श्रीशैल, त्रिपुष्कर, त्र्र्यम्बक, धौतपाप, गोकर्ण, सुवर्ण तथा रेवा-कपिल संगम आदि तीर्थों के बारह वर्ष के दर्शन के तुल्य सिद्धिलाभ वहां केवल एक मास के दर्शन मात्र से मिल जाता है।

लेखक – रमेश दीक्षित

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