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49/84 महादेव : श्री पृथुकेश्वर महादेव मंदिर

वाचिकं मानसं वापि कायिकं गुहयसम्भवम्।
प्रकाशं वाकृतंपापं प्रसङ्गादपियत्कृतम्।।
तत्सर्वं यास्यति क्षिप्रं पृथुकेश्वर दर्शनात्।।

(अर्थात्- पृथुकेश्वर का दर्शन करने वाले व्यक्ति का कायिक, मानसिक, वाचिक, प्रकाशित, अप्रकाशित, प्रसंगवश किया, चाहे जैसा भी पाप होगा, वह सब क्षयीभूत हो जाएगा।)
यह मंदिर शिप्रा नदी की पुरानी रपट को पार करने के बाद ही दाईं ओर धोबीघाट पर केदारेश्वर महादेव (क्रमांक ६७) के साथ एक ही भवन में स्थित है। साढ़े पांच फीट ऊंचे उत्तरामुखी लोहे के प्रवेश द्वार के भीतर प्रवेश करते ही श्री पृथुकेश्वर महादेव का भूरे व लाल रंग का लिंग प्रस्तर निर्मित जलाधारी के मध्य करीब १० इंच ऊंचा प्रतिष्ठित है।
यहां न नाग है, न त्रिशूल, न डमरू केवल ढाई ङ्ग ढाई के गर्भगृह में पृथुकेश्वर महादेव स्थापित हैं। अकेले बिना अपने परिवार के। केदारेश्वर महादेव के साथ ही दोनों के मध्य मंदिर के बाहर एक ही नंदीश्वर वाहन है।

लिंग माहात्म्य की कथा-

महादेव देवी पार्वती से कथा कहते हैं कि स्वायंभुव वंश में अंगराज ने जन्म लेकर मृत्यु की सुदुर्लभा पुत्री से विवाह किया था। जिनके पुत्र वेण की मृत्यु ब्राह्मणों के शाप से हो गई थी। उसकी जंघा का मंथन करने से म्लेच्छों तथा दाहिनी बाहु के मंथन से धार्मिक एवं पराक्रमी पृथु जन्मे।
एक बार राजा पृथु यह जानकर अत्यंत व्यथित हुए कि पृथ्वी निर्बीज हो गई है। तब देवर्षि नारद ने उन्हें सुझाव दिया कि पृथ्वी का गाय रूप में दोहन किया जाए तो वह सभी इच्छित पदार्थ दे देगी। यद्यपि ऐसा करके उन्हें अभीष्ट की प्राप्ति हुई, तथापि वे यह सोचकर दु:खी होने लगे कि पृथ्वी पर नाराजी करते-करते स्त्रियों, ब्राह्मणों आदि को मारने का सोचा।
इस मानसिक अपराध से मुक्ति हेतु पृथु ने नाराद से परामर्श किया। तब उन्होंने पृथु को महाकाल वन जाकर इस लिंग विशेष की आराधना करने का कहा। राजा ने यहां आकर आराधना करने तथा मानसिक अपराध से मुक्त अनुभव करने से इसे पृथुकेश्वर लिंग कहा गया।

फलश्रुति-

इस लिंग के दर्शन मात्र से मनुष्य सार्वभौम पदवी प्राप्त करता है। जो व्यक्ति भक्तिपूर्वक इस लिंग की अर्चना करेगा, वह देवलोक तथा मनुष्यलोक में राज्यलाभ करेगा। अंत में उसे ब्रह्मा का परमपद प्राप्त होगा।

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