56/84 महादेव : श्री रेवन्तेश्वर महादेव मंदिर

ये मांद्रक्ष्यन्तिरेवन्त भक्तयापरमयायुता:।
तेषामश्वा भविष्यन्ति विजयो यश ऊर्जितम्।।
ऐश्वर्य दानशक्तिश्च पुत्रपौत्रमन्नतकम्।

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(अर्थात्- हे रेवन्त! जो यहंा मेरा दर्शन भक्तिभाव से करेंगे उनको अश्व, जय, यश, ऐश्वर्य, दानशक्ति, अनंत पुत्र-पौत्र परंपरा का लाभ होगा।)

लेखक – रमेश दीक्षित

यह मंदिर खाती समाज के जगदीश मंदिर से दायें मुड़कर पहली गली के मोड़ पर स्थित है। इसका मार्ग अब इससे जोड़कर अब पूर्व की ओर बनाए गए दक्षिणमुखी बाल वीर हनुमान के अंदर से हो गया है। यहीं एक पीपल का वृक्ष भी है। बृहस्पतिवार प्रात:9.30 बजे जब अक्षरविश्व की टीम रेवन्तेश्वर महादेव मंदिर पहुंची तो पाया कि देवाधिदेव का लिंग जलमग्न है।

लिंग माहात्म्य की कथा-

महादेव ने पार्वती को सुनाया कि सूर्य अपनी पत्नी संज्ञा को ढूंढते हुए कुरूदेश पहुंचे जहां वह घोड़ी के रूप में मिली। अश्व रूप सूर्य व संज्ञा के नासिका मिलन से अश्वमुखी अश्विनीकुमार द्वय पैदा हुए। सूर्य के रेत:पात की समाप्ति होने पर खड्ग व ढाल तथा कवचधारी अश्वारूढ़ रेवन्त की उत्पत्ति हुई जिसने देव-असुर-मनुष्य सभी को जीतकर अपना राज्य स्थापित कर लिया। उसके तेज से समस्त पदार्थ दग्ध हो रहे हैं।

ब्रह्मा ने सभी को शंकर के पास भेजा, वे महादेव की शरण में पहुंचे। तब शंकर ने उसे आलिंगित कर वह मांगने को कहा। मैंने उसे पृथ्वी के उत्तम स्थान महाकाल वन भेजा जहां कण्टेश्वर के पूर्व में स्थित एक लिंग का दर्शन करने को कहा। रेवन्त ने तत्काल वहां पहुंचकर उस लिंग का दर्शन किया। वह लिंग रेवन्तेश्वर नाम से कही प्रसिद्ध हो गया।

फलश्रुति-

”यस्य दर्शनमात्रेण परा सिद्धि: प्रजायते।”इसके दर्शन से परासिद्धि का उन्मेष होता है। वह मनुष्य मृत्यु के अनंतर गुहयकपति होकर शिवलोक में निवास करेगा। दर्शन से मनुष्य संस्कृत हो जाता है तथा उसके करोड़ों जन्म पवित्र हो जाते हैं तथा उसे पुनर्जन्म नहीं लेना होता।

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