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79/84 महादेव : श्री हनुमत्केश्वर महादेव मंदिर

श्री हनुमत्केश्वर महादेव मंदिर

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सर्वलोकेषु तस्यैव गतिर्न प्रतिहन्यते।

दिव्येनैश्वर्ययोगेन युज्यते नात्र संशय:।।

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बालसूर्यप्रतिकाशविमानेन सुवर्चसा।

वृत: स्त्रीणां सहस्रैस्तु स्वच्छन्दगमनागम:।।

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(अर्थात् – जो इस लिंग का दर्शन करता है वह सर्वपापरहित होकर सभी लोकों में जाने की गति प्राप्त करता है, उसको दिव्य ऐश्वर्य लाभ होता है। वे बालसूर्य के समान विमान पर सहस्रों दिव्य नारीगण से घिरकर आसीन होते हैं तथा देवलोकों में स्वच्छन्द विचरते हैं।)

यह मंदिर मां गढ़कालिका के पास स्थित श्री स्थिरमन (थलमन) गणपति मंदिर से श्री विक्रांत भैरव मंदिर को जाने वाले मार्ग पर बायीं ओर एक टीले पर पूर्वाभिमुखी होकर स्थित है। टीले पर चढऩे का एक कच्चा तथा दूसरा लोहे के चढ़ाव का सुगम मार्ग है। प्राचीन स्तम्भों पर भीतर की ओर स्टील द्वार का 5 फीट ऊंचा प्रवेश द्वार है जिससे उतरकर हमारे बाएं 5 फीट ऊंचे एक गहरे ताक में डेढ़ फीट ऊंची गणेशजी की सिंदूरचर्चित मूर्ति स्थापित है।

सामने की दीवार पर पंचमुखी हनुमानजी की अति मनोहारी, आकर्षक एवं कलात्मक सिंदूरिया कलेवर चढ़ी हुई मूर्ति है जिसके ठीक नीचे एक मेहराबदार बड़े ताक में पार्वती की मूर्ति तथा दायीं ओर कार्तिकेय विराजित हैं। करीब 80 वर्गफीट के गर्भगृह में 2 फीट चौड़ी पीतल की जलाधारी के मध्य नाग आकृति से आवेष्ठित और छायायुक्त श्याम वर्ण लिंग प्रतिष्ठित है। 2 फीट ऊंचा पीतल का त्रिशूल व डमरू समीप लगे हैं। फर्श व आधी दीवार पर सफेद संगमरमर लगा है। यहां इस लिंग का अभिषेक तेल की धार से किया जाता है।

लिंग के माहात्म्य की कथा- लंका विजय के उपरान्त श्रीराम के अभिनन्दन हेतु जो मुनिगन आये, उन्होंने श्री हनुमान् के समुद्रोल्लंघन, सीता अन्वेषण, रावण के सेनानायकों, मन्त्रियों व पुत्रों का विनाश, लंकादहन आदि अद्भुत कार्यों की भूरि-भूरि प्रशंसा की। ऐसे कार्य तो काल, इन्द्र, विष्णु तथा ब्रह्मा ने भी नहीं किये। यह सुनकर श्रीराम ने भी हनुमान् के महनीय कार्यों को, उनके बाहुबल को सराहा तथा कहा कि वे अपना बल नहीं जानते।

तब मुनिगण ने बताया कि ये अमोघ वचन वाले मुनियों से शापित हैं। तदनन्तर मुनिगण ने हनुमान् के बाल्यावस्था में बालसूर्य को पकडऩे हेतु आकाश में छलांग लगाने तथा इन्द्र द्वारा इन पर वज्राघात करने तथा वायु द्वारा इन्हें महाकालवन ले जाकर लिंग सेवा संपन्न करने की घटनाओं का वृतान्त सुनाया। मुनिगण ने यह भी बताया कि लिंग स्पर्श होते ही हनुमान् चैतन्य हो गये।

तब पवनदेव ने इस लिंग का नाम हनुमत्केश्वर रखा, इसी नाम से इसकी लोकप्रसिद्धि हुई। तभी इन्द्र ने वहां पहुंचकर इनका नाम हनुमान् रखा, फिर वरुण ने हनुमान् को अमरत्व, यम ने अवध्यत्व, कुबेर ने आरोग्य, सूर्य ने प्रभा तथा पवन ने द्रुत गति का वरदान दिया। अन्त में इस लिंग ने भी हनुमान् की अवध्यता, अमरता व अजेयता तथा राघव की प्रीति के लिए सदा शत्रु बल को नष्ट करने का वर दिया।

रावण वध के उपरान्त विभीषण से कहकर यहीं स्थापित करने की बात लिंग ने वायुदेव से कही। मुनिगण ने श्रीराम से कहा कि इस लिंग के कारण अमित बली होकर हनुमान् त्रैलोक्य में प्रसिद्ध हो गये इसलिये ये प्रशंसा के पात्र हैं। ऐसा कहकर मुनिगण अवंतीमंडल चले गये, तब राम ने महाकालवन आकर हनुमत्केश्वर लिंग का पूजन किया।

फलश्रुति- जो मानव इस लिंग के दर्शन करता है वह कलिकाल में कृतार्थ होकर ब्रह्म्सायुज्य प्राप्त करता है। वह पुनर्जन्म चक्र से भी मुक्त हो जाता है। मानव हनुमत्केश्वर लिंग दर्शन से राजतुल्य भी हो जाता है।

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