तेजी से बढ़ती जा रही संख्या चिंता का विषय
बढ़ती संख्या को रोकना प्रशासन के बूते की बात नहीं
अक्षरविश्व न्यूज उज्जैन। शहर में तेजी से बढ़ती जा रही ई-रिक्शा की संख्या यातायात के लिए परेशानी का सबब बनती जा रही है। कोई आंकड़ा तय नहीं है कि इनकी मूल संख्या कितनी है। महाकाल लोक बन जाने के बाद शहर में श्रद्धालुओं की संख्या में लगातार इजाफा हो रहा है। इनकी संख्या को देखते हुए बेरोजगारों ने अन्य व्यवसाय अपनाने के बजाय ई-रिक्शा को ही तवज्जो दी है।
शहर में एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने के लिए सबसे सस्ता साधन बारह सीटर टैंपो माना जाता था। इसे बंद कर मैजिक शुरू की गई। इस पर आरटीओ का नियंत्रण है। वहीं से रूट तय होते हैं और परमिट भी जारी होते हैं। मैजिक के पहले शहर में इन्हीं का दबदबा था। यह व्यवाय इतना फूला फला कि कई लोगों ने साल भर में दो मैजिक खड़ी कर दीं। अब इनकी हालत पतली है। पहले यह पूरी गाड़ी भरने के बाद आगे बढ़ते थे, अब कम संख्या में ही आगे बढऩा पड़ रहा है। कारण यह है कि यात्री खुले में बैठना पसंद करता है। मैजिक सिर्फ निर्धारित स्थान पर छोड़ती है। ई-रिक्शा कहीं भी चले जाते हैं।
ई-रिक्शा की चार्जिंंग भी चर्चित है शहर में
ई-रिक्शा की चार्जिंग भी शहर में चर्चा का विषय बनी हुई है। कुछ लोगों का कहना है कि जिन लोगों ने ई-रिक्शा खरीदी है वे अपने घर पर ही चार्ज कर रहे हैं। चर्चा यह भी है कि कुछ लोगों ने चार्जिंग करने का धंधा भी बना लिया है। ये प्रति घंटे के हिसाब से ई-रिक्शा की बैटरी चार्ज करते हैं। इनके मालिकों का बिल कितना आता है अभी तक इसका खुलासा नहीं हो सका है। लेकिन यह तय है कि ई-रिक्शा तबीयत से चार्ज हो रहे हैं।
रोजाना होते हैं दोनों चालकों में विवाद
मैजिक और ई-रिक्शा चालकों में सवारी बैठाने को लेकर शायद ही कोई चौराहा हो, जहां विवाद न होते हों। मैजिक वाले सवारी बुलाते हैं। इसके पहले कि सवारी वहां तक पहुंचे, ई-रिक्शा वाले वहां आ धमकते हैं। राशि उतनी ही जितनी मैजिक वाला ले रहा है। सवारी ई-रिक्शा में बैठ जाती है। इस बात को लेकर दोनों चालकों में विवाद हो जाता है। उनके विवाद का खामियाजा सवारी को भुगतना पड़ता है। कुछ ई-रिक्शा वाले विवाद से बचते हैं।
ई-रिक्शा का कोई रूट नहीं
ई-रिक्शा का कोई रूट तय नहीं है। पिछले दिनों यातायात विभाग ने व्यवस्था बनाई थी, लेकिन यह व्यवस्था भी कुछ ही दिन चली। रेलवे स्टेशन पर प्री-पेड बूथ बनाया गया। यह बना ही रह गया।
बाहर से आने वाले वही किराया देने को मजबूर होते हैं जो बताया जाता है। रेलवे स्टेशन पर इसकी बानगी देखी जा सकती है। समय-समय पर यह समस्या उठाई गई, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला। यातायात पुलिस की निष्क्रियता का लाभ इन लोगों को मिल रहा है।