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उज्जैन:रुपए लेकर भस्मारती कितनी उचित ?

उज्जैन:सुधीर नागर/ राजाधिराज महाकाल की भस्मारती दर्शन के लिए ऑनलाइन बुकिंग शुल्क 200 रुपए करना और प्रोटोकॉल दर्शन के लिए 100 रुपए की रसीद अनिवार्य करने से मंदिर का खजाना अवश्य भर जाएगा किंतु भक्तों की जिज्ञासा का घड़ा भरना संभव नहीं। वह ये कि इसके लिए प्रशासन को विवश क्यों होना पड़ा? भक्त अपनी अगाध श्रद्धा से बिना प्रबंधन के झोली फैलाए ही इतना दान करते हैं की इसकी जरूरत न पड़े। मंदिर की आय 80 करोड़ होने का अनुमान है। 2014-15 में यह 25.89 करोड़ ही थी। इसके बाद भी मंदिर प्रशासन अगर भक्तों से भस्मारती दर्शन के माध्यम से मंदिर कोष को भरना चाहता है तो इसे कोई कैसे उचित मानेगा। संभव है आक्रोश उठेगा और मंदिर का व्यवसायीकरण करने की अंगुलियां भी तनेगीं। यह बात अलग है कि भक्त इस पर भी रुकेंगे नहीं, उनकी आस्था डिगेगी नहीं।

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प्रश्न यह भी गंभीर है कि मंदिर की अर्थव्यवस्था में अनदेखी के सूराख तो नहीं हो गए? फिजूलखर्ची तो नहीं बढ़ रही? मंदिर के आय-व्यय का हिसाब हर माह विस्तृत रूप से प्रकाशित करना चाहिए जिससे कोई कमी या लापरवाही हो रही हो तो उसे तुरंत दूर किया जा सके। प्रशासन को इन कमियों को दूर करने पर भी विचार करना चाहिए किंतु बजट को देख लगता है न अधिकारी न जनप्रतिनिधि इसके प्रति गंभीर हैं।

ताजा बजट में ही खर्चों को काटने के बाद मुश्किल से ही पैसा बचेगा। इसलिए ये सवाल अवश्य उठ सकते हैं कि भक्तों का पैसा उड़ाया तो नहीं जा रहा?

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भौतिक विकास आवश्यक है किंतु मंदिर प्रशासन के लिए धार्मिक आध्यात्मिक विकास प्रमुख होना चाहिए। प्रबंधन मंदिर के माध्यम से कोई ऐसा केंद्र स्थापित नहीं कर सका, जिससे धर्म का जागरण किया जा सके, उसका प्रचार हो सके। मंदिर का अपना कोई धर्म अनुसंधान व ध्यान केंद्र नहीं है, जिससे धर्म और अध्यात्म के लिए नई खोज, नए आयाम स्थापित किए जा सकें।

यह भी अनुसंधान का विषय है कि कर्मचारियों की अनावश्यक फौज राजनीतिक दबाव में खड़ी तो नहीं हो रही, जो मंदिर के कोष पर भार बन रही? जो अधिकारी सरकार से पेंशन ले रहे और मंदिर से मानदेय भी, उनकी नियुक्ति पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए। पूर्णकालिक प्रशासक की आवश्यकता आज तक पूरी न हो पाना भी आश्चर्य का विषय है। जनप्रतिनिधि ये सब देख धृतराष्ट्र की तरह मूकदर्शक बने बैठे हैं तो सुधार की अपेक्षा किससे होगी? प्रशंसा तो साधु-संतों के धैर्य और संयम की भी होना चाहिए कि वे अपना दुर्वासा रूप नहीं दिखा रहे।

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रुपए लेकर भस्मारती कितनी उचित?: ताजा बजट में ही खर्चों को काटने के बाद मुश्किल से ही पैसा बचेगा। इसलिए ये सवाल अवश्य उठ सकते हैं कि भक्तों का पैसा उड़ाया तो नहीं जा रहा ? भौतिक विकास आवश्यक है किंतु मंदिर प्रशासन के लिए धार्मिक आध्यात्मिक विकास प्रमुख होना चाहिए। प्रबंधन मंदिर के माध्यम से कोई ऐसा केंद्र स्थापित नहीं कर सका, जिससे धर्म का जागरण किया जा सके, उसका प्रचार हो सके। मंदिर का अपना कोई धर्म अनुसंधान व ध्यान केंद्र नहीं है, जिससे धर्म और अध्यात्म के लिए नई खोज, नए आयाम स्थापित किए जा सकें।

यह भी अनुसंधान का विषय है कि कर्मचारियों की अनावश्यक फौज राजनीतिक दबाव में खड़ी तो नहीं हो रही, जो मंदिर के कोष पर भार बन रही? जो अधिकारी सरकार से पेंशन ले रहे और मंदिर से मानदेय भी, उनकी नियुक्ति पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए। पूर्णकालिक प्रशासक की आवश्यकता आज तक पूरी न हो पाना भी आश्चर्य का विषय है। जनप्रतिनिधि ये सब देख धृतराष्ट्र की तरह मूकदर्शक बने बैठे हैं तो सुधार की अपेक्षा किससे होगी? प्रशंसा तो साधु-संतों के धैर्य और संयम की भी होना चाहिए कि वे अपना दुर्वासा रूप नहीं दिखा रहे।

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