54/84 महादेव :श्री कण्टकेश्वर महादेव मंदिर

नैमिषऽथ कुरूक्षेत्रे गश्राद्वारेच पुष्करे।
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स्नानांत्संसेवनाद्वापि यत्पुण्यं च मतिष्यति।।
तत्पुण्यं भविता सम्यक्छी कण्टेश्वर दर्शनात्।।
(अर्थात्- नैमिष, कुरूक्षेत्र, गंगाद्वार, पुष्कर में स्नान-यज्ञादि से जो पुण्य लाभ होता है, श्री कण्टेश्वर के दर्शन से वही पुण्य मिल जाता है।)
क्रमांक ५४ के इस मंदिर को शासन व नगरपालिका निगम उज्जैन ने कण्ठेश्वर नामांकित किया है,जबकि स्कंद पुराण में ५४ क्रमांक पर इसे कण्टकेश्वर व इसी अध्याय में संस्कृत में इसे कई बार कण्टेश्वर लिखा गया है। यह मंदिर पीपलनाके के आगे जूना सोमवारिया मार्ग की दाईं ओर मोड़ पर अवस्थित है।
इसका पूर्वाभिमुख ५ फीट ऊंचा प्रवेश द्वार से २ चढ़ाव उतरकर प्रवेश करते हैं तो ढाई फीट चौड़ी ओम नम: शिवाय मंत्राकित उसकी बॉर्डर कलापूर्ण दिख पड़ती है। जलाधारी के मध्य करीब ४ इंच ऊंचा श्याम वर्ण पाषाणलिंग नागाकृति से आवेष्ठित है। समीप ही ढाई फीट ऊंचा त्रिशूल व डमरू है। प्रवेश द्वार पर बायें से ताक में गणेश, सामने पार्वती और दायें कार्तिकेय की सुंदर मूर्तियां स्थापित हैं। गर्भगृह केस ामने १८ इंच ऊंचे आसन पर नंदी वाहन की काले पाषाण की कलात्मक प्रतिमा विराजित है। रोड युक्त करीब ७५० वर्गफीट के सभामंडप में धर्मानुष्ठान संपादित होते रहे हैं। आरती के समय पीतल का मुघौटा पहनाया जाता है।
लिंग माहात्म्य की कथा- महादेव ने देवी पार्वती को आद्यकल्प के राजा सत्यविक्रम की कथा सुनाई जो शत्रु से हारकर महर्षि वशिष्ठ के आश्रम में शरणार्र्थ पहुंचा। महर्षि ने उसे महाकालवन एक लिंग विशेष के दर्शनार्थ भेजा। वहां महर्षि के कथनानुसार एक वल्कलधारी अस्थिचर्ममात्र तपस्वी दिखा जो सूर्यवत् तेजस्वी था।
उस परम तापस ने सब जानकर एक हुंकार भरती जिससे पांच कन्याएं प्रकट हुईं जिनमें एक सिंहासन पर आसीन थी तथा चार उसे उठाकर लाई थी। तपस्वी ने एक और हुंकार भरी जिससे कुछ अप्सराएं प्रकट होकर नृत्य करने लगी। राजा आश्चर्यचकित था। तपस्वी ने उसे शत्रुओं पर विजय तथा सभी सुखोपभोग हेतु शिवराधना करने का कहना। राजा ने भक्तिपूर्वक ऐसा ही किया तथा उसे शिव का सान्निध्य प्राप्त हुआ। उसे लिंग दर्शन से निष्कंटक राज्य प्राप्त हुआ। राजा तब अपने राज्य लौट गया जहां उसने चक्रवर्तित्व लाभ किया। तब से यह लिंग कण्टेश्वर कहलाया।
फलश्रुति- गृही, संन्यासी अथवा ब्रह्मचारी जो भी इस लिंग के दर्शन करेगा उसके सहस्र जन्मकुल पूर्व संचित पाप नष्ट हो जाएंगे तथा उसे सिद्धि प्राप्त होगी। उसका दान, तप, होम, जप, ध्यान व अध्ययन अक्षय हो जाएगा।