मोदिष्यन्तिकुले: साद्र्धं पितृमातृसमुद्भवै:।
कल्पकोटिसहस्रं तुयेपश्यन्ति समाहिता:।।
(अर्थात् – जो यहां मेरा दर्शन करेगा, वह माता-पिता के कुल के साथ कोटि सहस्र कल्पकाल तक आमोदित रहेगा।) यह मंदिर रामघाट पर धर्मराज मंदिर के पूर्व में तथा रामसीढ़ी चढऩे के पहले दायें हाथ पर एक बड़े चबूतरे पर स्थित है। मंदिर का उत्तरामुखी प्रवेश द्वार मात्र साढ़े तीन फीट ऊंचा है। इसका गर्भगृह करीब 50 वर्गफीट आकार का है जिसका फर्श तथा दीवारें पूर्णत: संगमरमर की हैं, पश्चिमाभिमुखी निर्गम द्वार भी केवल 3 फीट ऊंचा ही है।
दो फीट चौड़ी पीतल की जलाधारी के मध्य 8 इंच ऊंचा शिवलिंग काले पाषाण का नाग की आकृति से आवेष्ठित है तथा नाग फण उठाये लिंग पर छाया किये हुए है। छोटा त्रिशूल समीप ही गड़ा है। गर्भगृह में प्रवेश पर दायीं ओर ऊपर गणेशजी की सिंदूरचर्चित मूर्ति तथा सम्मुख एक मेहराबनुमा माबल के मंदिर में देवी पार्वती की सिंदूरचर्चित मूर्ति स्थापित है। इस छोटे आकार के मंदिर में शिव-स्तुति हेतु 1 शिवपंचाक्षरस्तोत्र, 2 महामृत्युन्जय मंत्र, 3 द्वादश ज्योतिर्लिंग स्तोत्र, शिव मानस पूजा स्तोत्र, श्री रुद्राष्टकम् आदि संगमरमर पट्टिकाओं पर अंकित हैं।
लिंग के माहात्म्य की कथा- देवयुग में प्रजापति की दो कन्याएं कद्रु तथ विनता महर्षि कश्यप की भार्या बनी। कद्रु के मांगने पर उसे पति ने एक हजार नागपुत्रों तथा विप को दो तेजस्वी पुत्रों का वरदान दिया। महात्मा ने दोनों को अत्यंत यत्न से गर्भधारण करने को कहा। समय पर कद्रु ने सहस्रों नाग पुत्र तथा विनता ने दो अण्डे प्रसव किये। एक भाण्ड में सुरक्षित रखे अण्डों से कद्रु पुत्र तो निकल गये, विनता को जब कोई पुत्र प्राप्त न हुआ तब दु:खी होकर उसने एक अण्डे को फोड़ दिया तथा पुत्र को देखा जिसका नीचे का आधा अंग अधूरा था।
उस अपूर्ण पुत्र ने माता को 500 वर्षों तक कद्रु की दासी बनने का शाप दे डाला तथा कहा कि दूसरा पुत्र तुम्हें शापमुक्त करेगा। शाप देकर पुत्र अरुण को बड़ा पश्चाताप हुआ, उसने अपनी विकलांगता को अपने अकर्म का फलभोग माना। तभी वहां देवर्षि नारद आये तथा उसे सब कुछ प्रदान करने वाले देवपूज्य शिवलिंग के दर्शनार्थ महाकालवन लाये। अरुण ने जब उस लिंग का दर्शन किया तो उसने अरुण को अद्वितीय सामथ्र्य देकर सूर्य के पहले उदित होने तथा त्रिभुवन में अरुणेश्वर नाम से प्रसिद्ध होने का वरदान दिया।
फलश्रुति- अरुणेश्वर ने कहा कि जो यहां मेरा दर्शन करेगा, वह माता-पिता के कुल के साथ कोटि सहस्र कल्पकाल तक आमोदित रहेगा। रविवार को रे दर्शन करने से कभी किसी को दु:ख नहीं होगा। कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी के दिन दर्शन करने से नरक में यातना भोग रहे पितरगण स्वर्ग में गमन करेंगे। इस लिंग के प्रभाव से अरुण को सदा सूर्य के अग्रभाग में ही देखा जाता है।
लेखक – रमेश दीक्षित