भैरव जयंती
पर विशेष….
आदिब्रह्म भक्तभयहारी शिवरूप भगवान् भैरव से भय कैसा?
उज्जयिनी के पुराणप्रसिद्ध अष्ट भैरव मंदिरों की यात्रा
भ गवान् भैरव के संबंध में सामान्यजनों ही नहीं बुद्धिजीवियों में भी भ्रांतियां और संशय व्याप्त है। कई लोग भैरव को खुले चबूतरे, छोटी-मढ़ी में प्राय: मुण्ड की आकृति में स्थापित इतर, साधारण, अनिष्टकारी और भयावह देवता मानते हैं। कुछ मदिरा पान करने वाला देवता होने से उनसे दूरी बनाये रखते हैं या कालभैरव मंदिर जाते भी हैं तो श्रद्धा भाव की अपेक्षा कौतूहल भाव से। कई लोग तो भगवान् भैरव तो ठीक भैरव भक्तों से मिलने से भी परहेज करते हैं। अक्षरविश्व के सुधी पाठकों लिए इन प्राचीन अष्ट भैरव मन्दिरों की संक्षिप्त जानकारी प्रस्तुत है। वर्तमान में प्रचलित मान्यता एवं धर्म-साहित्य से संकलित सामग्री निम्नानुसार है- रमेश दीक्षित (लेखक दैनिक अक्षरविश्व के स्तम्भकार व विशेष संवाददाता)
वस्तुत: शतरुद्रसंहिता के अनुसार भैरव भगवान् शिव के पांंचवे अवतार हैं जिनकी शक्ति भैरवी गिरिजा है। अत: शिव ही भैरव है–”गुरु चरणरतोऽहं भैरवोऽहं शिवोऽहं।ÓÓ उनका भैरवावतार भक्तों की मनोकामना पूर्ण करनेवाला, सत्पुरुषों के लिए सुखदायक तथा भुक्ति-मुक्ति प्रदायक है। वास्तव में भैरव ने भयंकर रूप तो दुष्टों को दंडित करने के लिए धारण किया है। सज्जनों के तो समस्त कलुशों का वे हरण कर लेते हैं-”सकलकलुशहारी धूर्तदुष्टांतकारी (स्कन्दपुराण)। पुराणों में भैरव को शिव का पुत्र (कालिकापुराण, अध्याय 50) और उनका गण भी कहा है, किन्तु शिवपुराण भैरव को शंकर का पूर्ण रूप बतलाता है–
”भैरवो पूर्ण रूपो हि शंकरस्य परात्मन।
मूढ़ास्ते वै न जानन्ति मोहित: शिवमायया।।ÓÓ (शिवरुद्रसंहिता, 3-8-2)
भैरव कलिकाल के जाग्रत देवता है। तन्त्रलोक की विवेक टीका में भगवान् शंकर के भैरव रूप को ही सृष्टि का संचालक कहा गया है। वस्तुत: वेदों में जिसे रुद्र कहा गया है, वही तन्त्रशास्त्र में भैरव है। भैरव शिव के ही पर्याय तथा उनके ही महाउग्र रूप हैं। जब शिव भैरव रहते हैं तो उमा भैरवी होती है। शिव का ताण्डव नृत्य उनकी भैरवरूपता का ही प्रतीक है। वामनकेश्वर तन्त्र, विज्ञान भैरव,स्कन्दपुराण, तन्त्रालोक आदि ग्रंथों में भैरव से शिव की अभेदता ही सिद्ध की है। सच तो यह है कि धार्मिक साहित्य में भैरव को भक्तवत्सल, भक्तभयहारी, भक्तहितकारी आदि विशेषणों से भूषित किया है। उन्हें संगीतप्रेमी, नृत्यप्रेमी, कुशल नर्तक तथा गीत, वाद्य अ
ादि 64 कलाओं को प्रकाशित करनेवाला कहा गया है।
स्कन्दपुराण के अवन्ती-माहात्म्य-खण्ड के अध्याय ‘नृसिंहतीर्थÓ में भगवान् भैरव की अति सुन्दर व्याख्या की गई है- जो संसार भय का निवारण करने वाले, दुष्ट योगिनियों के लिए भयंकर और समस्त देवताओं के स्वामी हैं, सुन्दर चन्द्रमा और सूर्य जिनके नेत्र हैं। जो देखने में सुन्दर, बोलने में मनोहर, प्रियजनों में सर्वाधिक सुन्दर और यश, कीर्ति, तपस्या के द्वारा भी अत्यन्त मनोहर हैं, उन भगवान् भूतनाथ भैरव की मैं शरण लेता हूं। जो आदिदेव सनातन ब्रह्म, पवित्रता में तत्पर, सिद्धिदाता, मनोरथपूर्वक भक्ति से सेवन करने योग्य, देवताओं में श्रेष्ठ, भक्तियुक्त, योगविचार में तत्पर, युग को धारण करने वाले, दर्शन
योग्य मुखवाले, योगी, कलायुक्त, कलंकरहित तथा सत्पुरुषों द्वारा सेवित हैं, उन भगवान्
भैरव को मैं प्रणाम करता हूं। इसी ”भैरवाष्टकम्ÓÓ में उन्हें ‘आद्यं ब्रहमसनातनं शुचिपरं सिद्धिप्रदं कामदं।।ÓÓ (अध्याय 75/23) तथा ”भजजन शिवरूपं भैरवो भूतनाथम्ÓÓ कहा गया है। ऐसे भक्तभयहारी भूतनाथ भगवान् भैरव से भय क्यों?
अवन्ती क्षेत्र के प्रमुख देवी-देवताओं व तीर्थों की जानकारी देते हुए देवी पार्वती को महादेव ने उन अष्ट भैरवों के नाम बताये-
”दण्डपाणिंच विक्रान्तो महाभैरवसिताऽसिता:।
बटुको बालको नन्दी षट्पंचाशतिको:पर:।।
कालभैरवं विख्यात: क्षेत्रपालस्तथाष्टम:।
(स्कंदपु./पू./अ.81/48-49)
श्री दण्डपाणि भैरव
श्री दण्डपाणि भैरव को देवप्रयाग तीर्थ में स्थित माना गया है। ”देवप्रयागंगच्छेच्च स्नानार्थ द्विजसश्रम।ÓÓ (स्कंदपु./अ.83/33) के पूर्व श्लोक ‘सोमतीर्थे नर: स्नात्वा दृष्ट्वा सोमेश्वर शिवं। Ó (83/32) से देवप्रयाग की समीपता सोमतीर्थ से सिद्ध होती है। दण्डपाणि भैरव का देवप्रयाग क्षेत्र में अवस्थान है जिसे वर्तमान में कालिदास उद्यान कहा जाता है। यह शिप्रा के बड़े पुल के समाप्त होने पर दायीं ओर स्थित है। उद्यान के मध्य में करीब 450 वर्गफीट के बड़े कक्ष में 20 वर्गफीट के गर्भगृह में दण्डपाणि भैरव का सिन्दूरचर्चित पूर्वामुख मुण्ड स्वरूप स्थापित है। देवमूर्ति सोैम्य, त्रिनेत्रधारी व आकर्षक है। मस्तक पर पगड़ी है। मढ़ी की चारों बाहरी दीवारों पर सुन्दर आकर्षक कांच के रंगीन टुकड़ों की पच्चीकारी की गई है। एक शिलालेख से यह मंदिर 135 वर्ष प्राचीन ज्ञात होता है।
श्री महाभैरव: आताल-पाताल भैरव
य ह प्राचीन मंदिर सिंहपुरी चौक में स्थित है। महाभैरव का आताल-पाताल भैरव नाम अर्थसिद्ध है। मूल देवमूर्ति का आधा निचला भाग भूमिगत है तथा आधा ऊपर दिख पड़ता है। मूर्ति पिण्डात्मक है जिसके बाईं ओर तीन नागों की आकृतियां हैं। नाग भैरव के अलंकार हैं। सड़क से तीन सीढिय़ां उतरकर गर्भगृह में प्रवेश होता है। भगवान् आताल-पाताल भैरव भक्तों की मनोकामना पूर्ण करते हैं। प्रति संध्या 7:30 बजे भैरव आरती के समीप भक्तों की भीड़ जुटती है। मंदिर में मनाये जाने वाले प्रमुख उत्सवों में भैरव जयंती, गुड़ी पड़वा, होलिकोत्सव पर निकलने वाली गैर तथा भैरव जयंती के दूसरे दिन भगवान् की पालकी की सवारी उल्लेखनीय है।
श्री कालभैरव मंदिर
भा रत में कालभैरव के दो मन्दिर प्रसिद्ध हैं- एक काशी नगरी में काशी के कोतवाल तथा दूसरे उज्जयिनी में ”महाकाल के सेनापतिÓ कहे जानेवाले श्री कालभैरव। शहर से 3-4 कि.मी. और माधवनगर की कॉलोनियों से 7-8 कि.मी. दूर सेन्ट्रल जेल के पास एक ऊंचे टीले पर राजा भद्रसेन द्वारा निर्मित एक प्राचीन मन्दिर स्थित है। इसके 15 फीट ऊंचे लकड़ी के दरवाजे के ऊपर लाल पत्थर का नक्काशीदार मेहराबनुमा बंगला बना है जहां से 7-8 दशक पूर्व पर्वोत्सवों पर शहनाई और नगाड़ों की मधुर धुन बजा करती थी। मंदिर में प्रवेश करने पर बायीं ओर एकमुखी भगवान् दश्रात्रेय का प्राचीन मंदिर है। वहीं एक दीप-स्तंभ बना है। श्री कालभैरव मंदिर की सीढिय़ां चढऩे पर अष्टदल कमल की आकृति में अष्टवीरों की आकृतियां उकेरी हुई हैं। इनके आह्वान, प्रणाम व दर्शन के उपरांत ही भगवान् कालभैरव के दर्शन करने की मान्यता है। उसी के आगे एक गुफा में पाताल भैरवी की मूर्ति बतायी जाती है।
श्री कालभैरव मन्दिर का 5 फीट ऊंचा प्रवेश-द्वार है। इसके दायीं ओर मां अम्बे की खड़ी मूर्ति तथा बायीं ओर गणेशजी की सिंदूरचर्चित मूर्तियां हैं। गर्भगृह में एक मढ़ीनुमा ढॉंचे के मध्य भगवान् श्री कालभैरव की मूति प्रतिष्ठापित है। सिंदूरचर्चित मूर्ति के मस्तक पर सिंधिया वंश शैली की पगड़ी है तथा भगवान का उन्नत ललाट, गहन कोटर में धंसी हुई ऑंखें, मस्तक पर त्रिपुण्ड, उठे हुए भारी कपोलों से मूर्ति की विलक्षणता स्पष्ट है। तान्त्रिक मन्त्रोच्चार के साथ ही श्री कालभैरव को सीलबंद बोतलों की ही मदिरा का भोग एक पीतल की तश्तरी से पिलाया जाता है। क्षेत्रीय पुरातात्विक प्रमाणों से यह मंदिर 10 वीं शती में निर्मित प्रतीत होता है। यह एक प्राचीन तन्त्रपीठ है। अतीत में यहॉं पंचमकार पूजा की जाती थी, ऐसा कहा जाता है। कालभैरव की मूर्ति के आगे एक झूले में उनकी प्रतिकृति रखी है। भैरव जयंती के अगले दिन श्री कालभैरव की पालकी की सवारी भैरवगढ़ के प्रमुख मार्गो से निकाली जाती है। सेन्ट्रल जेल के गेट पर बंदियों को भगवान् कालभैरव के दर्शन कराये जाते हैं।
श्री विक्रान्त भैरव
य ह मंदिर श्री कालभैरव मन्दिर के सामने सिंहस्थ 2016 में निर्मित नये पुल के दायीं ओर ओखलेश्वर श्मशान में शिप्रा नदी के तट पर एक 125 वर्गफीट के छोटे से कक्ष में स्थित है। यह मंदिर पूर्वकाल में एक विशाल मंदिर था। पुराणप्रथित ओखलेश्वर श्मशान में एक प्राचीन दीवार पर गुप्तकाल से लेकर परमारकाल की अनेक मूर्तियां भग्नावस्था में एक ऐरन पत्थरों की प्राचीर पर आज भी विद्यमान है, उसी कतार में श्री विक्रान्त भैरव की मूर्ति प्रतिष्ठापित है। यह मूर्ति देवलीलावश या शिप्रा की बाढ़ की मिट्टी से आच्छादित रह जाने के कारण संभवत: मुगल शासक औरंगजेब के सिपाहियों की नजर से बचकर अखण्ड रही। इस मूर्ति की खोज गढ़वाल मूल के श्री बाबा डबराल (श्री गोविंदप्रसाद कुकरेती) ने सन् 1960 में दीवाली के पूर्व की। वे 56 वर्षों तक निरन्तर उनकी एकनिष्ठ भक्ति करते हुए लोककल्याण कर भक्तों के कष्ट दूर करते रहे। यह श्मशान क्षेत्र अतीत में प्राचीन अवंतिका का तंत्र-साधना का प्रमुख केन्द्र रहा है। पुरा-सम्पदा की दृष्टि से क्षेत्र अत्यन्त महत्वपूर्ण है। यहां ओखलेश्वर महादेव का परमारकालीन मंदिर है जिसका मराठाकाल में जीर्णोद्धार किया गया प्रतीत होता है। पशुवराह की एक पुरा महत्व की पाषाण प्रतिमा है। मंदिर के पास सती माता के प्राचीन चरण तथा टीले पर ब्रह्मलीन बाबा डबरालजी की समाधि है जो राज्य संरक्षित स्मारक है। यहां असंख्य भक्त प्रतिदिन तथा मुख्यत: रविवार और शुक्रवार को दर्शनार्थ आते हैं।
श्री बटुक भैरव
प्रा चीन ग्रंथों में इसे ब्रह्मपोल में स्थित बताया है। यह मंदिर वर्तमान में चक्रतीर्थ श्मशान के रेम्पवाले मार्ग के पूर्व बायीं ओर स्थित है। पूर्वामुख प्रवेश-द्वार के भीतर जाने पर भगवान् बटुक भैरव की मूर्ति पांच फीट ऊॅंचे गर्भगृह में विराजित है। दो स्तम्भों पर मढ़ी जैसा ढॉंचा बना है जिस पर ऊॅंचा शिखर दर्शनीय है। मूर्ति के दर्शन करीब 4 फीट दूरी से होते हैं। भैरव मूर्ति चतुर्भुज है जिसके दायें हाथों में पाश और दंड हैं तथा बायें हाथ वरद और आशीर्वाद मुद्रा में हैं। इनका स्वरूप सात्विक बालक का है। मूर्ति के ठीक ऊपर पीछे माता भैरवी की मूर्ति एक ताक में स्थापित है। गर्भगृह के सामने भैरव-भक्त के ब्रह्मलीन सेवक श्री मंगल बाबा का बड़ा चित्र लगा है। कहते हैं बाबा की समाधि श्री विक्रांत भैरव मंदिर परिसर के दायें कोने में बनी है। मंदिर परिसर में भगवान् दत्तात्रेय की सफेद संगमरमर की मूर्ति, शिव मंदिर, गणेशजी व कार्तिकस्वामि की मूर्तियां भी दर्शनीय है। भैरव जयंती पर शाम को शाकाहारी छप्पन भोग के दर्शन होते है व प्रसाद वितरण होता है।
श्री गोर (बाल) भैरव
य ह मंदिर माता गढ़कालिका मंदिर चौराहे से पूर्व दिशा की ओर जाने पर श्री विष्णु चतुष्टिका संरक्षित स्मारक के आगे दायीं ओर समीप ही एक निजी खेत में स्थित है। मंदिर का प्रवेश-द्वार पीछे की ओर से है। प्रवेश-द्वार मात्र चार फीट ऊंचा है। गर्भगृह में एक-दो व्यक्ति ही एक साथ जा सकते है। सम्मुख 3 फीट ऊंची भैरव मूर्ति है जिसका दायां हाथ मुड़ा हुआ है तथा त्रिशूल धारण किए है। मूर्ति सुंदर बाल रूप में है जिसके पैर मुड़े हुए हैं। गर्भगृह में दायें शिव-पार्वती की ललितासन मुद्रा में मूर्ति स्थापित है। गर्भगृह में हनुमान् जी की भी मूर्ति है तथा काला भैरव की मूर्ति भी है जिन्हें मदिरा का भोग लगाया जाता है जबकि गोर भैरव को दूध अर्पित किया जाता है। मंदिर में मूर्तियों की और मंदिर के छोटे से आकार के शिल्प की प्राचीनता स्वत: सिद्ध है।
श्री आनंद भैरव
श्री आनंद भैरव मंदिर शिप्रा नदी की पुरानी रपट से रामघाट वाले मार्ग पर बाईं ओर शिप्रा तट पर ही स्थित है । इसका पूर्व नाम मल्लिकार्जुन क्षेत्र है। इसकी प्रतिमाओं की प्राचीनता स्वत: सिद्ध है । मंदिर का पश्चिमामुख प्रवेश द्वार 6 फीट ऊंचा है। गर्भ गृह के मध्य में करीब ढाई फीट ऊंची आनंद भैरव की आनंदी एवं सुदर्शन खड़ी हुई बाल रूप मूर्ति स्थापित है जो चलित मुद्रा में प्रतीत होती है। मूर्ति के मस्तक पर त्रिपुंड है तथा दाहिने हाथ में त्रिशूल और बाएं हाथ में मानव मुण्ड है । मूर्ति मूलत: दिगंबर रूप में थी जिस पर शृंगार किया गया है। मूर्ति के दाएं ओर 9 मातृकाओं की खड़ी हुई मूर्तियां हैं तथा माता गजलक्ष्मी की एक सिंदूर चर्चित दर्शनीय मूर्ति गजमुख पर सवार है। मंदिर अति प्राचीन है तथा अष्ट भैरव मंदिरों में भी गण्य है।
श्री क्षेत्रपाल (सितासित) भैरव
य ह मंदिर भगवान् आताल-पाताल भैरव मंदिर के आगे सिंहपुरी में ही चौरासी महादेव में परिगणित श्री कुटुम्बेश्वर महादेव मंदिर के प्रवेश द्वार में प्रवेश करते ही हमारे बायीं ओर की दीवार पर स्थापित भैरवमूर्ति रूप में प्रसिद्ध है। एक 25 फीट लंबे और ढाई फीट ऊंचे प्लेटफार्म पर भगवान् भैरव की यह प्राचीन मूर्ति स्थित है। इस मूर्ति के मस्तक पर त्रिपुण्ड अंकित है तथा दायें हाथ में आयुध त्रिशूल है। दायीं ओर ही पास में काष्ठ निर्मित दण्ड रखा है। मूर्ति के ऊपर ‘सितासितÓ नाम लिखा है। इस महादेव मंदिर में अन्य प्राचीन प्रतिमाएॅं भी दर्र्शनीय हैं जो पुरातात्विक महत्व की हैं।
श्री छप्पन भैरव मन्दिर
य ह मंदिर नगर के व्यस्ततम क्षेत्र भागसीपुरा की एक गली में स्थित है जहां एक चैनल गेट लगा मंदिर दिखता है जिसे श्री छप्पन भैरव मंदिर कहते है। करीब 120 वर्गफीट के गर्भगृह के मध्य में 10 फीट लम्बा और तीन फीट चौड़ा संगमरमर जडि़त एक ढाई फीट ऊंचे प्लेटफॉर्म पर छप्पन भैरव विराजित हैं। देवमूर्तियां संयुक्त पिण्डात्मक हैं। लगभग 15 भैरवों के मुण्ड अथवा आवक्ष मुण्ड दिखाई देते हैं जिन पर मुखमण्डल के अंगों का दर्शन होता है। कुछ आकृतियों पर त्रिपुण्ड या त्रिशूल अंकित हैं। अधिकतम ऊॅंची मूर्ति ढाई फीट तक की है। यह मंदिर भी प्राचीन है। मंदिर के प्रधान पं. श्रीधर व्यास के अनुसार सम्राट विक्रमादित्य यहां पूजा करने आते थे। अतीत में यहां एक तालाब था जिसके किनारे ये मूर्तियां स्थापित थी।