‘अगर विकास के साथ जीना है तो पर्यावरण को बचा नहीं सकते और अगर पर्यावरण को बचाने जाओ तो विकास बेचारा उदास हो जाता है।’ ये संवाद फिल्म ‘शेरनी’ की पूरी कहानी एक लाइन में बयां कर देता है। वह फिल्म याद है आपको? राजेश खन्ना के सुपरस्टारडम के दौर की फिल्म ‘हाथी मेरे साथी’। उसके एक गाने की लाइन है, ‘जब जानवर कोई इंसान को मारे, कहते हैं दुनिया में वहशी उसे सारे, एक जानवर की जान आज इंसान ने ली है, चुप क्यों हैं संसार…!’ संसार की इसी चुप्पी पर निर्देशक अमित मसुरकर का दिल रोया है फिल्म ‘शेरनी’ बनकर। जन, जंगल और जिंदगी के बीच झूलती अमित की ये नई फिल्म उस फिल्मकार की विकसित होती शैली की एक और बानगी है जिसकी पिछली फिल्म ‘न्यूटन’भी इन तीन मुद्दों की भूलभुलैया का रास्ता तलाश रही थी। इस बार उनके साथ हैं अपनी हर फिल्म से अदाकारी की और बड़ी लकीर खींचती विद्या बालन। एक आईएफएस विद्या विन्सेन्ट के रोल में।
फिल्म ‘शेरनी’ की ओपनिंग क्रेडिट्स अंग्रेजी के साथ हिंदी में भी दिखना सुखद एहसास है। मध्य प्रदेश के अफसरों के लंबे चले परिचय (इसमें शायद प्रमुख सचिव का नाम ही गलत लिख गया है) फिल्म शुरू होती है और इसका एक बड़ा हिस्सा जंगल और इंसान के रिश्ते को दोहराता दिखता है। ये दिखाता है कि मध्य प्रदेश का वन विभाग जंगल में बसे लोगों को कैसे रोजी रोटी में मदद कर रहा है। कैसे जंगल में बसे लोगों को जंगल का दोस्त बनाकर जंगलों और इंसानों दोनों को बचाया जा सकता है। और, ये भी कि कैसे जंगल विभाग के अफसर अपने वरिष्ठों को खुश करने के लिए अपने ही पेशे से गद्दारी करते रहते हैं। फिल्म ‘शेरनी’ की शेरनी टी 12 तो है ही, डीएफओ विद्या विन्सेन्ट भी शेरनी की तरह अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है। टी 12 ने दो बच्चों को जन्म दिया है और उसके बाद भी शिकारी उसका पीछा नहीं छोड़ रहे। विद्या जल्द से जल्द मां बन जाए, इसके लिए उसकी मां और उसकी सास दोनों उसके पीछे पड़े हैं।
विद्या बालन ही मौजूदा अभिनेत्रियों में ऐसी फिल्म कर भी सकती हैं। न तो इसकी कहानी में ग्लैमर है, न फॉर्मूला फिल्मों से मसाले हैं और न ही किसी रैपर या म्यूजिक अरेंजर का संगीत। यहां सब कुछ देसी है। खालिस देसी। फिल्म ‘शेरनी’ सीधे आपको आपके ड्राइंग रूम से उठाकर रायसेन, बालाघाट और औबेदुल्लागंज के जंगलों में रख देती है। ऐसे जंगल जहां शिकारी टट्टी सूंघकर ये बताने की कोशिश करते हैं कि यहां से टाइगर गुजरा था कि तेंदुआ। ये वे लोग हैं जो शेर की आंख में देखकर ये बताने का दावा करते हैं कि वह आदमखोर है कि नहीं। शहरों में जब घरों में बंदर घुसते हैं तो सब परेशान होते हैं। लेकिन, ये कम ही सोचते हैं कि उनके शहर फैलते फैलते जंगलों तक आ चुके हैं। घुसपैठ बंदर नहीं इंसान कर रहे हैं। कहानी यहां भी वही है। जानवर और जंगल को अलग अलग समझने की भूल की। फिर इसमें राजनीति है। हर बात पर ‘यस सर’ बोलने वाले अफसर हैं। और, हर बात पर ‘यस सर’ बोलने वाले ही राज, धर्म और तन का नाश कराते हैं ये तो तुलसी बाबा बरसों पहले रामचरित मानस में लिख गए हैं।
फिल्म ‘शेरनी’ एक सच्ची घटना से निकली फिल्म है। एक ऐसे माहौल की फिल्म जिसमें वोटों के लिए इंसानों की बलि दे दी जाती है, शेरनी की तो औकात ही क्या है। विद्या बालन के करियर का ये एक और अहम पड़ाव है। पिछले साल उनकी फिल्म ‘शकुंतला देवी’ को ओटीटी पर बेइंतहा प्यार मिला। अब वह एक ऐसी फिल्म लेकर आई हैं, जिसमें उनका जंगल और जानवरों से प्यार एक बहुत बड़ा संदेश देता है। विद्या ने हिंदी सिनेमा में अभिनय की जो लीक बनानी शुरू की है, वहां तक उसे कम अभिनेत्रियां ही खींचकर ला पाई हैं। वह फिल्म दर फिल्म कमाल कर रही हैं। फिल्म ‘शेरनी’ भी उनके सहज अभिनय का विस्तार बन गई है। विद्या बालन की ‘मिशन मंगल’ और ‘शकुंतला देवी’ के बाद कामयाबी की ये हैट्रिक है। इन तीनों फिल्मों में विद्या ने तीन मजबूत किरदारों में जान डाली है।
विद्या बालन के साथ फिल्म ‘शेरनी’ में दमदार कलाकारों की एक मजबूत टोली है। बृजेंद्र काला को वेब सीरीज ‘तीन दो पांच’ के बाद फिर एक ऐसे किरदार में अपना काम दिखाने का मौका मिला है जो कहानी में उत्प्रेरक का काम करता है। बृजेंद्र के किरदारों की कहानियों में लंबाई बढ़ते देखना अच्छा लगता है। नीरज कबी का रोल छोटा है लेकिन विद्या के किरदार का ईमान दिखाने के लिए जरूरी है। शरत सक्सेना को उनकी कद काठी के अनुरूप ही किरदार मिला है और इसे उन्होंने निभाया अच्छे से हैं। विजय राज का किरदार ऐसा है कि इसमें विजय राज का होना न होना फर्क नहीं डाल पाया है।
फिल्म ‘शेरनी’ की तमाम खूबियों के साथ इसकी खामियां भी साथ चलती हैं। फिल्म की सिनेमैटोग्राफी मध्य प्रदेश के जंगलों की नैसर्गिक सुंदरता पकड़ने में नाकाम रही है। डीएफओ स्तर के वन अधिकारी का जैसा रहन सहन एक सरकारी बंगले में होता है, वैसा दिखा पाने में भी फिल्म का कला विभाग नाकाम रहा। वन विभाग के दफ्तरों को भी बेहतर तरीके से दिखाया जा सकता था। संगीत पक्ष फिल्म का काफी कमजोर है। ‘न्यूटन’ में भी ये कमी खली थी। फिल्म ‘शेरनी’ चलती भी थोड़ी धीमी गति से है। लेकिन, अमित मसुरकर का सिनेमा रफ्तार वाली दुनिया के लिए है भी नहीं। ये अलग ही दुनिया है। यहां पैदल चलने वाला ही रेस जीतता है। आस्था टिकू की पटकथा अपने हिसाब से बहती है। हां, संपादन चुस्त करके फिल्म की लंबाई थोड़ी कम की जा सकती थी, लेकिन धीमे धीमे बहने वाली नदियों का भी अपना अलग सौंदर्य है। जरूर देखिएगा इसे, इस वीकएंड पर।