जानिए सावन के महीने में क्यों की जाती है कांवड़ यात्रा

हिन्दू पंचांग के अनुसार सावन के महीने से ही व्रत और त्योहारों की शुरुआत हो जाती है.हिन्दू धर्म में, श्रावण मास का विशेष महत्व बताया गया है. खासतौर से भगवान शिव की आराधना और उनकी भक्ति के लिए कई हिन्दू ग्रंथों में भी, इस माह को विशेष महत्व दिया गया है.मान्यता है कि सावन माह अकेला ऐसा महीना होता है, जब शिव भक्त महादेव को खुश कर, बेहद आसानी से उनका आशीर्वाद प्राप्त कर सकते हैं.
हर साल सावन के महीने में लाखों की तादाद में कांवड़िये सुदूर स्थानों से आकर गंगा जल से भरी कांवड़ लेकर पदयात्रा करके अपने घर वापस लौटते हैं. इस यात्रा को कांवड़ यात्रा बोला जाता है.सावन माह की चतुर्दशी के दिन उस गंगा जल से अपने निवास के आसपास शिव मंदिरों में भगवान शिव का जलाभिषेक किया जाता है. कहने को तो ये धार्मिक आयोजन भर है, लेकिन इसके सामाजिक सरोकार भी हैं. कांवड़ के माध्यम से जल की यात्रा का यह पर्व सृष्टि रूपी भगवान शिव की आराधना के लिए किया जाता है.
कावड़ यात्रा से जुड़ा पौराणिक इतिहास
मान्यताओं के अनुसार, सबसे पहले परशुराम जी ने कावड़ में जल भरकर भगवान शंकर का जलाभिषेक किया था। परशुराम जी अभिषेक करने के लिए गढ़मुक्तेश्वर से गंगा नदी का जल लाए थे और पुरा महादेव में भगवान शिव का अभिषेक किया था।आज भी इस परंपरा को आगे बढ़ाते हुए श्रावण के महीने में गढ़मुक्तेश्वर से जल लाकर लाखों लोग पुरा महादेव का जलाभिषेक करते हैं
कुछ लोगों का यह भी मानना है कि श्रीराम एक कावड़िया थे। उन्होंने बिहार से सुल्तानगंज से कांवड़ में जल भरकर बाबा बैद्यनाथ मंदिर में शिवलिंग का जलाभिषेक किया था। एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार, इस परंपरा का इतिहास समुद्र मंथन से जुड़ा हुआ है।समुद्र मंथन में निकले विष को भगवान शिव ने पी लिया था और उन पर इस विष के नकारात्मक प्रभाव होने लगे थे।
भगवान शिव को इन प्रभावों से मुक्त करवाने के लिए उनके परम भक्त रावण ने कावड़ में जल भरकर पुरा महादेव मंदिर में भगवान शिव का जलाभिषेक किया और इससे भगवान शिव विष के नकारात्मक प्रभावों से मुक्त हो गए। यहीं से ही कावड़ परंपरा का प्रारंभ हुआ।आज भी शिव भक्त कावड़ परंपरा का पालन करते हैं और आस्था पूर्वक कावड़ में जल भरकर शिवलिंग का जलाभिषेक करते हैं।
इस परंपरा के तहत दो मटकियों में किसी नदी या सरोवर का जल भरा जाता है और फिर उसे बांस में दोनो तरफ बांध दिया जाता है, यह एक तराजू की तरह प्रतीत होता है। इसे अपने कंधे पर उठाकर यात्रा करने वाले लोग कावड़िया कहलाते हैं।भक्त जन गेरुआ रंग के कपड़े पहनकर नंगे पैर, भोले बाबा की जय जयकार करते हुए, कावड़ यात्रा करते हैं और अंत में किसी शिव मंदिर में अपने आराध्य का जलाभिषेक करते हैं।
यह यात्रा काफी कठिन होती है और यात्रा के दौरान विश्राम करते समय भी कावड़ को जमीन पर नहीं रखा जाता है, इसे किसी पेड़ पर लटका दिया जाता है। यह यात्रा एक उत्सव की तरह निकाली जाती है और यह भगवान शिव के प्रति आस्था का प्रतीक है।
कांवड़ यात्रा का क्या है महत्व और नियम
Thank you for reading this post, don't forget to subscribe!